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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्मद्वार - अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा देखा। सबको मरे हुए देखकर उसने विचार किया - अहो ! अनजान नाम वाले फलों को खाने का यह फल आया है। यदि निष्कारण वत्सल आचार्यश्रीजी ने मुझे नियम नहीं दिया होता तो मैं यह फल खाकर यह अवस्था प्राप्त करता, गुण निधि और अज्ञान रूपी वृक्ष को जलाने में अग्नि तुल्य ऐसे श्री गुरुदेव यावज्जीव विजयी रहें ! कि जिन्होंने नियम देने के बहाने से मुझे जीवन दान दिया है। इस तरह लम्बे समय तक गुरु की प्रशंसा करके शोक से अति व्याकुल शरीर वाला वह उनके शस्त्र आदि उपकरणों को एक स्थान पर रखकर, पूर्व में सुभटों के समूह के साथ पल्ली में घूमता फिरता था और आज तो एकाकी उसमें भी मरे हुए सर्व परिवार वाला मैं प्रकट रूप प्रवेश करते लोगों को मुख किस तरह बताऊँगा? ऐसा विचारकर मध्य रात्री होने पर चला । केवल एक तलवार की सहायता वाला शीघ्रमेव अपने घर पहुँचा और कोई नहीं देखे इस तरह शयन घर में प्रवेश किया, वहाँ उसने जलते दीपक की फैलती प्रभा समूह में अपनी पत्नी को एक पुरुष के साथ सुखपूर्वक शय्या में सोयी हुई देखी।। ९७५ ।। उस समय ललाट में उछलती और इधर-उधर नाचती फिरती त्रिवली से विकराल, दाँत के अग्र भाग से निष्ठुरता से होंठ को कुचलते वह अत्यन्त क्रोध से फटे अति लाल आँखों के प्रचंड तेज समूह से लाख के रंग से रंगी लाल तलवार को खींचकर विचार करने लगा कि - यम के मुख में प्रवेश करने की इच्छा वाला यह बेचारा कौन है? कि मेरे जीते हुए भी यह पापी मेरी पत्नी का सेवन करता है। अथवा लज्जा मर्यादा से रहित यह पापिनी मेरी पत्नी भी क्यों किसी अधम पुरुष के साथ ऐसे सो रही है। यहाँ पर ही इन दोनों का तलवार से टुकड़े करूँ! अथवा इस तलवार ने जो कि पराक्रमी उग्र शत्रु सेना को और हाथियों के समूह को नाश करने में प्रचण्ड और अनेक युद्धों में यश प्राप्त किया है, उसे लोक विरुद्ध स्त्रीवध में क्यों उपयोग करूँ ? इसलिए इसमें एक को ही मार दूं । प्रहार करते समय गुरुदेव के द्वारा पूर्व में ली हुई प्रतिज्ञा का अचानक स्मरण हुआ इससे सात-आठ कदम पीछे हटकर जैसे ही प्रहार करता है, इतने में तो ऊपर की छत के साथ तलवार टकराने से आवाज हुई और भाभी के शरीर के भार से और आवाज सुनकर सहसा भययुक्त बहन बोली कि वह मेरा भाई वंकचूल चिरंजीवो! वंकचूल ने यह सुनकर विचार किया - अरे रे ! अत्यन्त गाढ स्नेह वश मेरा अनुकरण करने वाली, जिसने पूर्व में मेरे स्नेह से सहेलियों को, स्वजन, माता-पिता का भी त्याग किया है वह यह मेरी बहन पुष्पचूला यहाँ कैसे? अभी मेरे प्राण से भी अत्यधिक प्रिय ऐसी मेरी बहन को मारकर अति महान पाप को करने वाला, स्वयं निर्लज्ज मैं किस तरह जी सकता था? अथवा बहन को खत्म करने के पाप की शुद्धि कौन-से प्रशस्त तीर्थ अथवा विशिष्ट तप से हो सकती? ऐसा चिंतन करते शोक के भार से व्याकुल हुए, अपने पाप कर्म से संतप्त वह बहन के गले लगकर रोने लगा। आश्चर्य से व्याप्त चित्त विचार वेग वाली पुष्पचूला ने कल को मुश्किल से शय्या में बैठाकर इस प्रकार कहा - हे भाई! तूं मेरुपर्वत के समान दृढ़ सत्त्व वाला, उदार प्रकृति वाला है फिर भी अचानक ही मेरे गले लगकर क्यों रोता है? और तेरे आगमन के समय तो इस पल्ली में प्रत्येक घर के दरवाजे उज्ज्वल ध्वजाओं से सजाये जाते थें, मनुष्यों के हर्ष आवेश में मार्ग भी छोटा पड़ता था, और अत्यन्त अनिष्ट उत्पन्न होते अथवा गाढ़ आपत्ति आने पर भी रोने की बात तो दूर रही तेरा मुख कमल भी नहीं बदलता था, उसके बदले तूं निस्तेज, दीन मुख वाला, उसमें भी परिवार बिना एकाकी, वह भी गुप्त, इस तरह घर में प्रवेश क्यों किया? तब उसने परिवार के विनाश की सारी घटना कही और परपुरुष समझकर उठाई हुई तलवार को टकराने की बात भी बहन को कही, और कहा कि - हे बहन ! मैं परिवार के विनाश का शोक नहीं करता, परन्तु शोक यह करता हूँ कि अभी सहसा तुझे मैंने इस तरह मार दिया होता, इससे में जाकर, 48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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