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समाधि लाभ द्वार-प्रनाद त्याग नामक चौथा द्वार
श्री संवेगरंगशाला ___ इसलिए हे देवानुप्रिय! क्रोधादि निरोध करने में अग्रसर होकर तूं भी उसका उसी तरह विजय कर कि जिससे तूं सम्यग् आराधना कर सके। इस तरह क्रोधादि के निग्रह का तीसरा द्वार संक्षेप से कहा। अब चौथा प्रमाद त्याग द्वार को भेदपूर्वक कहता हूँ ।।७०३६ ।। प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार :
जिसके द्वारा जीव धर्म में प्रमत्त-अर्थात् प्रमादी बनता है उसे प्रमाद कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है(१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथा।
प्रथम मद्य प्रमाद का स्वरूप = इसमें जिसके कारण जीव विकारी बनता है वह कारण सर्व प्रकार के विकारों का प्रकट अखंड कारण मद्य कहलाता है। अबुध और सामान्य लोगों के पीने योग्य मद्य-शराब पंडित जन उत्तम पुरुषों को अपेय अर्थात् पीने योग्य नहीं है, क्योंकि पेय और अपेय पंडित और उत्तम मनुष्य ही जानते हैं। इसलोक और परलोक के हित के विचार में विशिष्ट पुरुषों ने जिसको इस जगत में निर्दोष देखा है या माना है वह उत्तम, यश-कारक और पवित्र, श्रेष्ठ पीने योग्य पदार्थ है। अथवा जो आगम द्वारा निषिद्ध है, विशिष्ट लोगों में निंदापात्र, विकारकारक इस लोक में भी जिसमें बहुत दोष प्रत्यक्ष दिखते है, पीने से जो निर्मल बुद्धि को आच्छादन करने वाला है, मन को शून्य बनाने वाला है, सर्व इन्द्रियों के विषयों को विपरीत बोध कराने वाला है, और सर्व इन्द्रिय समभाव वाली हो, स्वस्थ हो, प्रौढ़ बुद्धि वाली हो, और स्पष्ट चैतन्य वाले चतुर पुरुषों की
आत्मा भी उसे पीने मात्र से सहसा अन्यथा परिणाम वाली होती है। अर्थात् समभाव छोड़कर रागी द्वेषी बनती है, विभाव दशा को प्राप्त करती है वह आत्मा क्षुद्र बुद्धि वाली और शून्य चेतना वाली बनती हो। अतः वह स्पष्ट अनार्य पापी मद्य को कौन बुद्धिशाली पियेगा। जैसे जल से दूसरे में अंकुर प्रकट होते हैं वैसे मद्य पीने से प्रत्येक समय में इस भव पर भव में दुःखों को देने वाले विविध दोष प्रकट होते हैं। तथा मद्यपान से राग की वृद्धि होती है, राग वृद्धि से काम की वृद्धि होती है और काम में अति आसक्त मनुष्य गम्यागम्य का भी विचार नहीं करता है। इस तरह यदि मद्य इस जन्म में ही समझदार मनुष्यों को विकल-पागल करता है तथा उसके साथ विष की भी सदृशता को धारण करता है। और हम क्या कहें? अर्थात् मद्य और जहर दोनों समान मानों! अथवा यदि मद्य अवश्य जन्मांतर में भी विकलेन्द्रिय रूप बनता है तो एक ही जन्म में विकलेन्द्रिय रूप करनेवाले विष को मद्य के साथ कैसे समानता दे सकते हैं? विष से मद्य अधिक दुष्टकारक है। ऐसा विचार नहीं करना कि द्रव्यों का मिलन रूप होने से सज्जनों को मद्य पीने योग्य ही है, परंतु इस विषय में सभी पेय अपेय की व्यवस्था विशिष्ट लोककृत और शास्त्रकृत है सब द्रव्यों का एक रूप होने पर भी एक वस्तु पीने योग्य होती है परंतु दूसरी वस्तु वैसे नहीं होती। जैसे द्रव्य मिलाकर द्राक्षादि का पानी सर्वथा पीने योग्य कहा है, उसी तरह मिलाये हुए द्रव्य से तुल्य होने पर भी (अत्थीय करीर) करीर के अचार के लिए धोया हुआ पानी पीने योग्य नहीं कहा है।
ऊपर कहा हुआ यह पेय और अपेय व्यवस्था लोककृत है और अब शास्त्रकृत कहते हैं। वह शास्त्र दो प्रकार का है. लौकिक तथा लोकोत्तरिक। उसमें प्रथम लौकिक शास्त्र कहता है कि-गड, आटा और महडा इस तरह तीन प्रकार की मदिरा होती है। वह जैसे एक, वैसे तीनों सुरा उत्तम ब्राह्मण को पीने योग्य नहीं है। क्योंकि जिसका शरीरगत ब्रह्म मद्य से एक बार लिप्त होता है, उसका ब्राह्मणपन दूर हो जाता है और शूद्रता आती है। स्त्री का घात करने वाला, पुरुष का घात करने वाला, कन्या का सेवन करने वाला, और मद्यपान करने वाला ये चारों तथा पाँचवां उसके साथ रहनेवाला इन पाँचों को पापी कहा है। ब्रह्म-हत्या करने वाला, 1. नारीपुरुषयोर्हन्ता, कन्यादूषकमद्यपौ। एते पातकि नः प्रोक्ताः, पञ्चमस्तौ सहाऽऽवसन् ।।७०५५||
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