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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग वानक चौथा द्वार-लौकिक ऋषि की कथा
बारह वर्ष वन में व्रत का पालन करे, तब शुद्ध होता है, परंतु गुरु पत्नी को सेवन करने वाला अथवा मदिरापान करने वाला ये दो तो मरे बिना शुद्ध नहीं होते हैं। मद्य से या मद्य की गंध से भी स्पर्श हुए बर्तन को ब्राह्मण स्पर्श नहीं करे, फिर भी यदि स्पर्श हो जाए तो स्नान द्वारा शुद्ध होता है। लोकोत्तर शास्त्र के वचन हैं कि 'मद्य और प्रमाद से मुक्त' तथा 'मद्य मांस को नहीं खाना चाहिए' इस तरह मद्यपान उभय शास्त्र से निषिद्ध है। मैं मानता हूँ कि-पाप का मुख्य कारण मद्य है, इसलिए ही विद्वानों ने सर्व प्रमादों में इसे प्रथम स्थान दिया है। क्योंकि मद्य में आसक्त मनुष्य उसे नहीं पीने से आकांक्षा वाला और पीने के बाद भी सर्व कार्यों में विकल बुद्धिवाला होता है। इसलिए उसमें आसक्त जीव सर्वथा अयोग्य है। मद्य से मदोन्मत्त बने हुए की विद्यमान बुद्धि भी नहीं रहती है, ऐसा मेरा निश्चय अभिप्राय है। अन्यथा वे अपना धन क्यों गँवायें और अनर्थ को कैसे स्वीकार करें? मद्यपान से इस जन्म में ही शत्रु से पकड़ा जाना आदि अनेक विपत्ति के कारण होते हैं और परलोक में दुर्गति में जाना आदि अनेक दोष होते हैं। मैं जानता हूँ कि मद्य से मत्त बना हुआ बोलने में स्खलन रूप होता है। उसके आयुष्य का क्षय नजदीक आया हो, इस तरह और नीचे लोटता है। वह नरक में प्रस्थान करता हो वैसे स्वयं नरक में जाता है। आँखें लाल होती हैं वह नजदीक रहा हुआ नरक का ताप है, और निरंकुश हाथ इधर-उधर लम्बा करता है वह भी निराधार बना हो, उसका प्रतीक है। यदि मद्य में दोष नहीं होता तो ऋषि, ब्राह्मण और अन्य भी जो-जो धर्म के अभिलाषा वाले हैं वे निषेध क्यों करते? और स्वयं क्यों नहीं पीते? प्रमाद का मुख्य अंग और शुभचित्त को दूषित करने वाले मद्य में अपशब्द बोलना इत्यादि अनेक प्रकार के दोष प्रत्यक्ष ही हैं। सुना है किकिसी लौकिक ऋषि महातपस्वी ने भी देवियों में आसक्त होकर मद्य से मूढ़ के समान विडम्बना प्राप्त की।।७०६७।। वह कथा इस प्रकार है :
लौकिक ऋषि की कथा कोई ऋषि तपस्या कर रहा था। उसके तप से भयभीत होकर इन्द्र ने उसे क्षोभित करने के लिए देवियों को भेजा। तब उन्होंने आकर उसे विनय से प्रसन्न किया और वह वरदान देने को तैयार हुआ। तब उन्होंने कहा कि-मद्यपान करो, हिंसा करो, और हमारा सेवन करो तथा देव की मूर्ति का खंडन करो। यदि ये चारों न करो तो भगवंत कोई भी एक को करो। ऐसा सुनकर उसने सोचा कि-शेष सब पाप नरक का हेतु है और मद्य सुख का कारण है, ऐसा अपनी मति से मानकर उसने मद्य पिया, इससे मदोन्मत्त बना उसने निर्भर अति मांस का परिभोग किया, उस मांस को पकाने के लिए काष्ठ की मूर्ति के टुकड़े किये और लज्जा को छोड़कर तथा मर्यादा को एक ओर रखकर उसने उन देवियों के साथ भोग भी किया। इससे तप शक्ति को खंडित करने वाला वह मरकर दुर्गति में गया।
इस तरह मद्य अनेक पापों का कारण और दोषों का समूह है। मद्य से यादवों का भी नाश हुआ। ऐसे अति दारुण दोष को सुनकर, हे सुंदर! तत्त्वों के श्रोता तूं मद्य नामक प्रमाद का आजीवन त्याग कर दे। जिसने मद्य का त्याग किया है उसका धर्म हमेशा अखंड है, उसने ही सर्व दानों का अतुल फल प्राप्त किया है और उसने सर्व तीर्थों में स्नान किया है।
मांसाहार और उसके दोष :-अनेक उत्तम वस्तु मिलाने से उत्पन्न हुए जंतु समूह के कारण जैसे मद्यपान करना पाप है वैसे मांस, मक्खन और मद्य भक्षण करना बहुत पाप है। सतत जीवोत्पत्ति होने से, शिष्ट पुरुषों से निंद्य होने से और सम्पातिक (उड़कर आ गिरते) जीवों का विनाश होने से ये तीनों दुःखरूप हैं। धर्म का सार जो दया है वह भी मांस भक्षण में कहाँ से हो सकती है? यदि हो तो कहो। इसलिए धर्म बुद्धि वाले मांस का जीवन
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