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समाधि लाभ द्वार प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-मांसाहार और उसके दोष
श्री संवेगरंगशाला
तक त्याग करते हैं। मनुष्यों के योग्य लोक में अन्य भी जीव की हिंसा किये बिना अत्यंत स्वादवाली, रसवाली, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से, स्वभाव से ही मधुर, पवित्र, स्वभाव से ही सर्व इन्द्रियों को रुचिकर और पुरुषों के योग्य, उत्तम वस्तु होने पर भी निंदनीय मांस को खाने से क्या लाभ है? हा! उस मांस को धिक्कार हो ! कि जिसमें अति विश्वासु, दूसरे जीवों के स्थिर प्राणों का अतर्कित (आकस्मिक) विनाश होता है। क्योंकि मांस वृक्षों से उत्पन्न नहीं होता अथवा पुष्प, फल से नहीं होता, जमीन से प्रकट नहीं होता अथवा आकाश से बरसता नहीं है, परंतु भयंकर जीव हिंसा से ही उत्पन्न होता है। तो क्रूर परिणाम वाला जीव वध से उत्पन्न हुए मांस को कौन दयावान खायगा ? क्योंकि उसे खाकर शीघ्र मार्ग भ्रष्ट होता है। और भूख से जलते केवल जठर भरने योग्य यह एक ही शरीर के लिए अल्प सुख-स्वादार्थ मूर्ख मनुष्य जो अनेक जीवों का वध करता है तो स्वभाव से ही हाथी के कान समान चंचल जीवन क्या अन्य मांस पोषण से स्थिर रहने वाला है? और ऐसा कभी भी विचार नहीं करना कि - मांस भी जीवों का अंग रूप होने से वनस्पति आदि आहार के समान सज्जनों को भक्ष्य है? क्योंकि भक्ष्य - अभक्ष्य की सारी व्यवस्था विशिष्ट लोककृत और शास्त्रकृत है। जीव का अंग रूप समान होने पर भी एक भक्ष्य है परंतु दूसरा भक्ष्य नहीं है। यह बात अति प्रसिद्ध है कि- जीव का अंग रूप समान होने पर भी जैसे गाय का दूध पीया जाता है, वैसे उसका रुधिर नहीं पीया जाता। इस तरह अन्य वस्तुओं में भी जानना । इस तरह केवल जीव अंग की अपेक्षा तो गाय और कुत्ते के मांस का निषेध भी नहीं रुकेगा, क्योंकि वह भी जीव का अंग होने से वह भी भक्ष्य गिना जायगा । और जीव अंग रूप हड्डी आदि समान होने से वह भी भक्ष्य गिना जायगा । और यदि केवल जीव अंग की समानता मानकर इस लोक में प्रवृत्ति की जाए तो माता और पत्नी में स्त्री भाव समान होने से वे दोनों भी तुल्य भोग योग्य होती हैं।
इस तरह यह लोककृत भक्ष्याभक्ष्य की व्यवस्था कही है। अब शास्त्रकृत कहते हैं। शास्त्र लौकिक और लोकोत्तरिक इस तरह दो प्रकार का है, उसमें प्रथम लौकिक इस प्रकार से है-मांस हिंसा प्रवृत्ति कराने वाला है, अधर्म की बुद्धि कराने वाला है और दुःख का उत्पादक है, इसलिए मांस नहीं खाना चाहिए। जो दूसरे के मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ-वहाँ उद्वेगकारी स्थान को प्राप्त करता है। दीक्षित अथवा ब्रह्मचारी जो मांस का भक्षण करता है, वह अधर्मी, पापी पुरुष स्पष्ट - अवश्य नरक में जाता
। ब्राह्मण आकाश गामी है, परंतु मांस भक्षण से नीचे गिरता है। इसलिए उस ब्राह्मण का पतन देखकर मांस का भक्षण नहीं करना चाहिए । मृत्यु से भयभीत प्राणियों का माँस जो इस जन्म में खाता है वह घोर नरक, नीच तिर्यंच योनियों में अथवा हल्के मनुष्य में जन्म लेता है। जो मांस खाता है और वह मांस जिसका खाता है उन दोनों का अंतर तो देखो। एक को क्षणिक तृप्ति और दूसरे को प्राणों से मुक्ति होती है। शास्त्र में सुना जाता है कि
भरत! जो मांस खाता नहीं है वह तीनों लोक में जितने तीर्थ हैं उसमें स्नान करने का पुण्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य मोक्ष अथवा देवलोक को चाहता है, फिर भी मांस को नहीं छोड़ता है, तो उससे उसे कोई लाभ नहीं है। जो मांस को खाता है तो साधु वेश धारण करने से क्या लाभ है? और मस्तक तथा मुख को मुंडाने से भी क्या लाभ? अर्थात् उसका सारा कार्य निरर्थक ।। ७१०० ।। जो सुवर्ण के मेरु पर्वत को और सारी पृथ्वी को दान में दे, तथा दूसरी ओर मांस भक्षण का त्याग करे, तो हे युधिष्ठिर ! वह दोनों बराबर नहीं होते अर्थात् मांस त्याग पुण्य में बढ़ जाता है। और प्राणियों की हिंसा के बिना कहीं पर मांस उत्पन्न नहीं होता है और प्राणिवध करने से स्वर्ग नहीं मिलता है। इस कारण से मांस को नहीं खाना चाहिए । जो पुरुष शुक्र और रुधिर से बना अशु मांस को खाता है और फिर पानी से शौच करता है, उस मूर्ख की मूर्खता पर देव हँसते हैं। क्योंकि जैसे जंगली
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