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श्री संवेगरंगशाला सनाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-नांसाहार और उसके दोष हाथी निर्मल जल के सरोवर में स्नान करके धूल से शरीर को गंदा करता है, उसके समान वह शौचकर्म और मांस भक्षण है। जो ब्राह्मणों को एक हजार कपिला गाय का दान करे और दूसरी ओर एक को जीवन दान करे, उसमें गौदान प्राणदान के सौलहवें अंश की भी कला को प्राप्त नहीं करता है।
१. हिंसा की अनुमति देने वाला, २. अंगों का छेदन करने वाला, ३. प्राणों को लेने वाला, ४. मांस बेचने वाला, ५. खरीदने वाला, ६. उसको पकाने वाला, ७. दूसरे को परोसने वाला और ८. खाने वाला ये आठों घात करनेवाले माने गये हैं।
जो मनुष्य माँस भक्षी है वह अल्पायुष्य वाले, दरिद्री, दूसरों की नौकरी से जीने वाले और नीच कुल में जन्म लेता है। इत्यादि मांस की दुष्टता जानने के लिए लौकिक शास्त्र वचन अनेक प्रकार के हैं। और 'मद्य माँस नहीं खाना' आदि लोकोत्तरिक वचन भी है। अथवा जो लौकिक शास्त्र का वर्णन यहाँ पूर्व में बतलाया है वह भी इस ग्रंथ में रखा है इससे इस वचन को निश्चय लोकोत्तरिक वचन जानना। क्योंकि सुवर्ण रस से युक्त लोहा भी जैसे सुवर्ण बनता है वैसे मिथ्यादृष्टियों ने कहा हुआ भी श्रुत समकित दृष्टि के ग्रहण करने से सम्यग्क् श्रुत बन जाता है।
यहाँ यह प्रश्न करते हैं कि-यदि पंडितजनों ने माँस को जीव का अंग होने से त्याग करने योग्य है ऐसा कहा है तो क्या मूंग आदि अनाज भी प्राणियों का अंग नहीं है कि जिससे उसे दूषित नहीं कहा? इसका उत्तर देते हैं कि मूंग आदि अनाज जो जीवों का अंग है वह जीव पंचेन्द्रियों के समान रूप वाले नहीं होते हैं, क्योंकि पंचेन्द्रिय जीव में जिस तरह मानस विज्ञान से युक्त चेतनावाला होता है, और तीक्ष्ण शस्त्रों से शरीर के एक भाग रूप मांस काटने पर प्रतिक्षण चीख मारता है, उस समय उसे अत्यंत दुःख होता है उस तरह जीव रूप में समान होने पर भी एक ही इन्द्रिय होने से मूंग आदि के जीवों को उस प्रकार का दुःख नहीं होता है, तो उनकी परस्पर तुलना कैसे हो सकती है? अरे मारो! जल्दी भक्षण करो। इत्यादि अत्यंत क्रूर वाणी को वे कान से स्पष्ट सुन सकते हैं, अति तेज चमकती तीक्ष्ण तलवार आदि के समूह को हाथ में धारण करते पुरुष को और उसके प्रहार को, उसकी भय से डरी हुई चपल नेत्रों की पुतली शीघ्र देखती है, चित्त में भय का अनुभव करता है, और भय प्राप्त करते वह कांपते शरीर वाला बिचारा ऐसा मानता है कि अहो! मेरी मृत्यु आ गयी। इस तरह जीवत्व तुल्य होने पर भी जिस तरह पंचेन्द्रिय जीव तीक्ष्ण दुःख को स्पष्ट अनुभव करता है, उस तरह मूंग आदि एकेन्द्रिय जीव अनुभव नहीं करते हैं। तथा पंचेन्द्रिय जीव परस्पर सापेक्ष मन, वचन और काया इन तीनों के अत्यंत दुःख को अवश्य प्रकट रूप में अनुभव करता है और मूंग आदि एकेन्द्रिय तो प्राप्त दुःख को केवल काया से और वह भी कुछ अल्पमात्र अव्यक्त रूप में भोगता है। और दूसरा हिंसक को पास में आते देखकर मरण से डरता है वह बिचारा पंचेन्द्रिय जीव किस तरह अपने जीवन की रक्षा के लिए जिस तरह इधर-उधर हलचल करता है, हैरान होता है, भागता है, छुप जाता है, और देखता है, उस तरह माँस की आसक्ति वाला आवेश वश बना हुआ वध करने वाला भी उसे विश्वास प्राप्त करवाने के लिए, ठगने के लिए, पकड़ने और मारने आदि के उपायों को जिस तरह चिंतन करता है, उस तरह एकेन्द्रिय को मारने में नहीं होता है। अतः जहाँ जहाँ मरनेवाले को बहुत दुःख होता है, और जहाँ-जहाँ मारने वाले में दुष्ट अभिप्राय होता है वही हिंसा में अनेक दोष लगते हैं। और त्रस जीवों में ऐसा स्पष्ट दिखता है इसलिए उसके अंग को ही मांस कहा है और उसका ही निषेध किया है। उस पंचेन्द्रिय से विपरीत लक्षण होने से बहुत जीव होने पर मूंग आदि में माँस नहीं है और लोक में भी वह अति प्रसिद्ध होने से दष्ट नहीं है। और इस तरह केवल जीव अंग रूप होने से ही यह अभक्ष्य नहीं है. किन्त उसमें उत्पन्न होते
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