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________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला अन्य भी बहुत जीव होने से वह अभक्ष्य है, क्योंकि कहा है आमासु य पक्कासु य विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। आयंतियमुववाओ, भणिओ य निओयजीवाणं ।।७१२८ ।। 'कच्चे, पक्के हुए और पकाते प्रत्येक मांस की पेशी में निगोद जीव हमेशा अत्यधिक उत्पन्न होते हैं।' और कई मूढ़ बुद्धि वाले पाँच मूंग खाने से पंचेन्द्रिय का भक्षण मानते हैं, उनका कहना बराबर नहीं है वह मोह का अज्ञान वचन है। जैसे तन्तु परस्पर सापेक्षता से पट रूप बनता है, और पुनः बहुत तन्तु होने पर भी निरपेक्षता (अलग रहने) से पटरूप नहीं होता है। इस तरह परस्पर सापेक्ष भाव वाली और स्व विषय को ग्रहण करने में तत्पर पाँच इन्द्रियों का एक शरीर में मिलने से वह पंचेन्द्रिय बनता है। सुख दुःख का अनुभव कराने वाले विज्ञान का प्रकर्ष भी वही होता है। जब प्रत्येक भिन्न-भिन्न इन्द्रिय वाले अनेक भी मूंग आदि में उस संवेदना का प्रकर्ष नहीं होता है। इस तरह अत्यंत अव्यक्त केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञान के आश्रित बहुत भी मूंग आदि में पंचेन्द्रिय रूप कहना अयोग्य है। लौकिक शास्त्रों में ऊपर कहे अनुसार मांस का निषेधकर पुनः उसी शास्त्र में आपत्ति अथवा श्राद्ध आदि में उसकी अनुज्ञा दी है-वहाँ इस प्रकार कहा है कि-वेद मंत्र से मंत्रित मांस को ब्राह्मण की इच्छा से अर्थात् खाने वाले ब्राह्मण की अनुमति से शास्त्रोक्त विधि अनुसार गुरु ने जिसको यज्ञ क्रिया में नियुक्त किया हो, उस यज्ञ विधि को कराने वाले को खाना चाहिए, अथवा जब प्राण का नाश होता हो तभी खा लेना चाहिए। विधिपूर्वक यज्ञ क्रिया में नियुक्त किये जो ब्राह्मण उस मांस को नहीं खाता है वह मरकर इक्कीस जन्म तक पशु योनि को प्राप्त करता है। इस तरह अनुज्ञा की फिर भी इस माँस का त्याग करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि उस शास्त्र में भी इस प्रकार से कहा है कि-"आपत्ति में और श्राद्ध में भी जो ब्राह्मण मांस को नहीं खाता है वह उत्तम गोत्रवाला पुत्र सहित और गोत्रीय मनुष्य सहित सूर्य लोक में पूजित बनता है।"।।७१३८।। इस प्रकार लौकिक और लोकोत्तर शास्त्रों में मांस भक्षण का निषेध किया है, इसलिए उस अवस्तु मांस को धीर पुरुष दूर से ही सर्वथा त्याग करे। मांस खाने वाले का अवश्य इस लोक में अनादर होता हैं, जन्मांतर में कठोरता, दरिद्रता, उत्तम जाति कुल की अप्राप्ति, अति नीच पाप कार्य द्वारा, आजीविका प्राप्त करने वाला भव मिलता है, शरीर पर आसक्ति, भय से हमेशा पीड़ित, अति दीर्घ रोगी, और सर्वथा अनिष्ट जीवन प्राप्त होता है। मांस बेचने वाले को धन के लोभ से, भक्षक उपयोग करने से और जीव को वध बंधन करने से ये तीनों मांस के कारण हिंसकत्व हैं। जो कभी भी मांस को नहीं खाता है, वह अपने अपयशवाद का नाश करता है और जो उसे खाता है उसे नीच स्थानों का दुःखद संयोग सेवन करना पड़ता है। इस तरह मांस अत्यंत कठोर दुःखों वाली नरक का एक कारण है. अपवित्र. अनुचित और सर्वथा त्याग करने योग्य है, इसलिए वह ग्रहण करने योग्य नहीं है। जो व्यवहार में दुष्ट है और लोक में तथा शास्त्र में भी जो दूषित है वह मांस निश्चय अभक्ष्य ही है, उसे चक्षु से भी नहीं देखना चाहिए। हाथ में मांस को पकड़ा हो चंडाल आदि भी किसी समय मार्ग में सामने आते सज्जन को देखकर लज्जा प्राप्त करता है। यदि अनेक दोष के समूह मांस को मन से भी खाने की इच्छा नहीं करता है, उसने गाय, सोना, गोमेध यज्ञ और पृथ्वी आदि लाखों का दान दिया है, अर्थात् उसके समान पुण्य को प्राप्त करता है। मैं मानता हूँ कि मांसाहारी जैसे दूसरे का मांस खाता है, वैसे अपना ही मांस यदि खाता है तो निश्चय अन्य को पीड़ा नहीं होने से उस प्रकार का दोष भी नहीं लगता है। परंतु ऐसा संभव नहीं है। अन्यथा तीन जौं जितने मांस के लिए अभयकुमार को अठारह करोड़ सोना मोहर मिली, ऐसा सुना जाता है वे नहीं मिलती ।।७१४९।। वह कथा इस प्रकार है : 299 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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