SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला মাসাধি লাম -ঘোকি নিয়ন্ত নাসেন্ট নীহা রে पर भी मद करने से क्या लाभ है? पूर्व में कही हुई चाणक्य और शकडाल नामक मंत्रियों की कथा सुनकर तूं प्रियता का मद मत करना। इसलिए प्रियता को प्राप्त करके भी तूं 'मैं इसका प्रिय हूँ" ऐसी वाणी रूपी मद का भयंकर सर्प के समान त्यागकर इस प्रकार ही विचार करना कि-मेरे कार्यों की अपेक्षा छोड़कर मैं इसके सभी कार्यों में प्रवृत्ति करता हूँ, इसलिए यह मेरे प्रति स्नेहयुक्त प्रियता दिखाता है, किंतु यदि मैं निरपेक्ष बनूँ तो निरुपकारी होने से अवश्य उसका अपराध किया हो, वैसे मैं उसके दृष्टि समक्ष खड़ा रहूं, फिर भी प्रियता नहीं होगी। यहाँ पर मद स्थान आठ हैं वह उपलक्षण वचन से ही जानना। अन्यथा मैं वादी हूँ, वक्ता हूँ, पराक्रमी हुँ, नीतिमान हूँ इत्यादि गुणों के उत्कर्ष से मद स्थान अनेक प्रकार का भी है, इसलिए हे वत्स! सर्व गुणों का कभी मद मत करना। जाति कुल आदि का मद करने वाले पुरुषों को गुण की प्राप्ति नहीं होती है, परंतु मद करने से जन्मांतर में उसी जाति कुल आदि में हीनता को प्राप्त करता है। और अपने गुणों से दूसरे की निंदा करते तथा उसी गुण से अपना उत्कर्ष प्रशंसा करते जीव कठोर नीच गोत्र कर्म का बंध करता है। फिर उसके कारण अत्यंत अधम योनि रूपी तरंगों में खींचते अपार संसार समुद्र में भटकता है, और इस जन्म के सर्वगुण समूह का गर्व नहीं करता है वह जीव जन्मांतर में निर्मल सारे गुणों का पात्र बनता है। __ इस तरह आठ मद स्थान नाम का दूसरा अंतर द्वार कहा है, अब क्रोधादि का निग्रह करने का यह तीसरा द्वार कहता हूँ ।।७०२१।। क्रोधादि निग्रह नामक तीसरा द्वार : जो कि अठारह पाप स्थानक में क्रोधादि एक-एक का विपाक दृष्टांत द्वारा कहा है, फिर भी उसका त्याग अत्यंत दुष्कर होने से और उसका स्थान निरूपण रहित न रहे, इसलिए यहाँ पर पुनः भी गुरु महाराज (गणधर गौतमस्वामी) क्षपक मुनि को उद्देश्य कर कहते हैं कि-हे सत्पुरुष! क्रोधादि के विपाक को और उसको रोकने से होने वाले गुणों को जानकर तूं कषाय रूपी शत्रुओं का प्रयत्नपूर्वक नाश कर। तीनों लोक में जो अति कठोर दुःख और जो श्रेष्ठ सुख है, वह सर्व कषायों की वृद्धि और क्षय के कारण ही जानना। 'क्रोधित शत्रु, व्याधि और सिंह मुनि का उतना अपकार नहीं करते हैं जितना अपकार क्रोधित कषाय रूपी शत्रु करता है। राग-द्वेष के आधीन बने हुए और कषाय से व्यामूढ़ बनें अनेक मनुष्य संसार का अंत करने वाले श्री जिनेश्वर के वचन को भी शिथिल करते हैं अर्थात् कषाययुक्त आत्मा श्री जिन वचन का भी अनादर करते हैं। धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य अत्यंत फैले हुए भी गर्जना करते दूसरे के क्रोधरूपी वायु से टकराते बादल के समान बिखर जाते हैं। इससे भी अधिक धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य कुलवान के काम विकार के समान अकार्य किये बिना ही सदा अंतर में ही क्षय हो जाते हैं। और कई अति धन्य पुरुषों के कषाय तो निश्चय ही ग्रीष्म ऋतु के ताप से पसीने के जल बिंदुओं के समान जहां उत्पन्न होते हैं वहाँ ही नाश हो जाते हैं। कई धन्य पुरुषों के कषाय खुदती हुई सुरंग की धूल जैसे सुरंग में ही समा जाती है, वैसे दूसरे के मुख वचनरूपी कोदाली के बड़े प्रहार से उत्पन्न हुए कषाय अंतर में ही समा जाते हैं। कई धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य दूसरे वचनरूपी पवन से प्रकट हुए उच्च शरद ऋतु के जल रहित बादल के समान असार फल वाले (निष्फल) होते हैं। ईर्ष्या के वश कई धन्य पुरुषों के कषाय अति भयंकर समुद्र की बड़ी जल तरंगों के समान किनारे पर पहुँचकर नाश होते हैं। धन्यों में भी वह पुरुष धन्य है कि जो कषाय रूप गेहूँ और जौ के कणों को संपूर्ण चूर्ण करने के लिए चक्की के समान अन्तःकरण रूपी चक्की में पिसते हैं। 1. न वि तं करेंति रिउणो, न वाहिणो न य मयारिणो कुविया। कुव्वंति जमऽवयारं मुणिणो कुविया कसायरिऊ ।।७०२६।। 294 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy