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________________ समाधि लाभ द्वार-ऐश्वर्यमद द्वार-दो व्यापारियों की कथा मेरा था। इससे सेठ ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? तब मुनि ने विश्वास करवाने के लिए वहाँ से थाल मँगवाकर पूर्व काल में संग्रह कर रखा हुआ उस थाल के टुकड़े को उसको दिया और उसने वहाँ लगाया, फिर तत्त्व के समान तत्स्वरूप हो इस तरह वह टुकड़ा शीघ्र अपने स्थान पर थाल में जुड़ गया और मुनि ने अपना गाँव, पिता का नाम, वैभव का नाश आदि सर्व बातें कहीं। इससे यह मेरा जमाई है। ऐसा जानकर हृदय में महान् शोक फैल गया, अश्रु जलधारा बहने लगी, सेठ साधु को आलिंगन कर अत्यंत रोने लगा । विस्मित मन वाले परिवार को महामुसीबत से रोते बंद करवाया। फिर वह अत्यंत राग से, मनोहर वाणी से साधु को इस प्रकार कहने लगा-तेरा सारा धन समूह उसी अवस्था में विद्यमान है और पूर्व में जन्मी हुई यह मेरी पुत्री भी तेरे आधीन है। यह सारा नौकर वर्ग तेरी आज्ञानुसार वर्तन करनेवाला है, इसलिए दीक्षा छोड़कर अपने घर के समान स्वेच्छापूर्वक विलास कर। मुनि ने कहा कि - प्रथम पुरुष काम भोग को छोड़ता है अथवा तो पुण्य का नाश होते वह विषय पहले पुरुष को छोड़ता है। इस तरह जो छोड़कर चला जाता है, उन विषयों को स्वीकार करना वह मानी पुरुषों को योग्य नहीं है। इसलिए शरद ऋतु के बादल समान नाश होनेवाले विषयों से मुझे कोई संबंध नहीं है। यह सुनकर सेठ को संवेग उत्पन्न हुआ और विचार किया कि - यह पापी विषय मुझे भी अवश्य छोड़ देंगे, अतः अवश्य नश्वर स्वभाव वाले परिणाम से कटु दुःखदायी दुर्गति का कारणभूत, राजा, चोर आदि को लुटाने योग्य, हृदय में खेद कराने वाला, मुश्किल से रक्षण करने योग्य, दुःखदायी और सर्व अवस्थाओं में तीव्र मूढ़ता प्रकट करानेवाले इन विषयों से क्या लाभ होता है? ऐसा चिंतनकर उस सेठ ने सर्व परिग्रह छोड़कर सद्गुरु के पास उत्तम मुनि दीक्षा को स्वीकार की । कर्मवश तथाविध विशिष्ट वैभव होने पर भी इस तरह ऐश्वर्य को नाशवान समझकर कौन बुद्धिशाली उसका मद करे ? तथा इस प्रकार आज्ञाधीन मेरे शिष्य, मेरी शिष्याएँ और मेरे संघ की सर्व पर्षदा और स्व- पर शास्त्रों के महान् अर्थ युक्त मेरी पुस्तकों का विस्तार ।। ७००० ।। मेरे वस्त्र पात्रादि अनेक हैं तथा मैं ही नगर के लोगों में ज्ञानी - प्रसिद्ध हूँ इत्यादि साधु को भी ऐश्वर्य का मद अति अनिष्ट फलदायक है। इस तरह प्राणियों की सद्गति की प्राप्ति को रोकने वाला, गाढ़ अज्ञान रूपी अंधकार फैलाने वाला तथा विकार से बहुत दुःखदायी, ये आउ प्रकार के मद तुझे नहीं करना चाहिए। अथवा तपमद और ऐश्वर्य मद इन दो के बदले बुद्धि-बल और प्रियता मद भी कहने का है उसका स्वरूप इस प्रकार जानना । इसमें बुद्धि मद अर्थात् शास्त्र को ग्रहण करना, दूसरे को पढ़ाना, नयी-नयी कृतियाँ - शास्त्र रचना, अर्थ का विचार (विस्तार) करना और उसका निर्णय करना इत्यादि अनंत पर्याय की अन्यान्य जीवों की अपेक्षा से बुद्धि वाला, बुद्धि के विकल्पों में जो पुरुषों सिंह समान हो गये हैं उन पूर्व के ज्ञानियों का अतिशय वाला विज्ञानादि अनंत गुणों को सुनकर आज के पुरुष अपनी बुद्धि का मद किस तरह करें? अर्थात् पूर्व के ज्ञानियों की अपेक्षा से वर्तमान काल के जीवों की बुद्धि अति अल्प होने से उसका मद किस तरह कर सकता है? दूसरा लोक प्रियता का मद करना योग्य नहीं है, क्योंकि कुत्ते के समान सैंकड़ों मीठे चाटु वचनों से स्वयं दूसरे मनुष्यों का प्रिय बनता है, फिर भी खेद की बात है कि वह रंक बड्डपन का गर्व करता है। तथा उस गर्व से ही वह मानता है कि- मैं एक ही इनका प्रिय हूँ और इसके घर में सर्व कार्यों मैं ही कर्त्ता, धर्त्ता हूँ। परंतु वह मूढ़ यह नहीं जानता कि पूर्व में किये अति उत्तम पुण्यों से पुण्य के भंडार बनें 'यह पुण्य वाले का मैं सर्व प्रकार से नौकर बना हूँ।' और किसी समय में उसका तथा किसी प्रकार प्रियता की अवगणना करके यदि वह सामने वाला अप्रियता दिखाता है तब उसे विषाद रूपी अग्नि जलाती है अर्थात् खेद प्राप्तकर मन में ही जलता है, इसलिए हे सुंदर ! आखिर विकार दिखाने वाला, इस प्रकार की प्रियता प्राप्त करने Jain Education International श्री संवेगरंगशाला For Personal & Private Use Only 293 www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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