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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ऐश्वर्यमद द्वार-दो व्यापारियों की कथा ___ किसी समय जीवन का शरद ऋतु के बादल समान चंचल होने से वह धनमित्र मर गया, और उसके स्थान पर उसका पुत्र अधिकारी हुआ। वह एक दिन जब स्नान करने के लिए पटारे (बाजोट) पर बैठा था, तब चारों दिशा में सवर्ण के चार उत्तम कलश स्थापन किये. उसके पीछे दो चाँदी सवर्ण आदि मि उसके पीछे ताम्बे के और उसके पीछे मिट्टी के कलश स्थापन किये। उन कलशों से महान सामग्री द्वारा जब स्नान करता है तब ऐश्वर्य इन्द्र धनुष्य के समान चंचलतापूर्वक पूर्व दिशा के सुवर्ण कलश विद्याधर के समान आकाश मार्ग से चले गये। इसी तरह सभी कलश आकाश मार्ग में उड़ गये। उसके बाद स्नान से उठा तो उसका विविध मणि सुवर्ण से प्रकाशमान स्नान पटारा बाजोट भी चला गया। इस तरह व्यतिकर को देखकर अत्यंत शोक प्रकट हुआ, उसने संगीत के लिए आये हुए नाटककार मनुष्यों को विदा किया। फिर जब भोजन का समय हुआ, तब नौकरों ने भोजन तैयार किया, और वह देव पूजादि कार्य करके भोजन करने बैठा। नौकरों ने उसके आगे अत्यंत जातिवंत सुवर्ण तथा चांदी के कलायुक्त कटोरी सहित चंद्र समान उज्ज्वल चाँदी का थाल रखा, और भोजन करते एक के बाद एक बर्तन उसी तरह उड़ने लगे इस तरह उड़ते आखिर मूल थाल भी उड़ने लगा, इससे विस्मय होते उसको उडते उसने हाथ से पकड़ा और जितना भाग पकड़ा था उतना भाग हाथ में रह गया और उड़ गया। उसके बाद भंडार को देखा तो उसका भी नाश हो गया देखा, जमीन में रखा हुआ निधान भी खत्म हो गया और जो दूसरे को ब्याज से दिया था वह भी नहीं मिला अपने हाथ से रखा हुआ भी आभूषणों का समूह भी नहीं तथा आज तक संभालकर रखे दास-दासी भी शीघ्र निकल गये। अनेक बार उपकार किया था वह समग्र स्वजन वर्ग अत्यंत अपरिचित हो इस तरह किसी कार्य में सहायता नहीं करता था। इस प्रकार वह सारा गंधर्व नगर के समान अथवा स्वप्न दर्शन समान अनित्य मानकर शोकातुर हृदयवाला वह विचार करता हैः ___ मंदभागियों में शिरोमणी मेरे जीवन को धिक्कार है कि नये जन्म के समान जिसका इस तरह एक ही दिन में जीवन बदल गया। सत्पुरुष सैंकड़ों बार नाश हुई सम्पत्ति को पुनः प्राप्त करते हैं और अरे! मेरे सदृश कायर पुरुष संपत्ति होने पर गँवा देता है। मैं मानता हूँ कि पूर्व जन्म में निश्चय मैंने कोई भी पुण्य नहीं किया, इसलिए ही आज इस विषम अवस्था का विपाक आया है। इसलिए वर्तमान में भी पुण्य प्राप्ति के लिए मैं प्रवृत्ति करूँ, अफसोस करने से क्या लाभ है? ऐसा सोचकर वह आचार्य श्री धर्मघोषसूरि के पास दीक्षित हुआ। संवेग से युक्त बुद्धिमान और विनय में तत्पर उसने धर्म की प्रवर श्रद्धा से सूत्र और अर्थ से ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। परंतु भविष्य में कभी किसी तरह विहार करते पूर्व के थाल को देखूगा, इस तरह जानने की इच्छा से पूर्व में संभालकर थाल का टुकड़ा रखा था, उसे नहीं छोड़ता था। अनियत विहार की मर्यादा से विचरते वह किसी समय उत्तरमथुरा नगरी में गया और भिक्षार्थ घूमते किसी दिन वह धनसार सेठ के सुंदर मकान में पहुँचा और उसी समय स्नान करके सेठ भोजन के लिए आया, उसके आगे वही चाँदी का थाल रखा और नवयौवन से मनोहर उसकी पुत्री भी पंखा लेकर आगे खड़ी थी। साधु भी जब टकटकी दृष्टि से उस टूटे थाल को देखने लगा, तब सेठ भिक्षा दे रहा था तो भी वह देखता नहीं था, इससे सेठ ने कहा कि-हे भगवंत! मेरी पुत्री को क्यों देखते हो? मुनि ने कहा कि-भद्र! मुझे आपकी पुत्री से कोई प्रयोजन नहीं है। किंतु यह थाल तुझे कहाँ से मिला है, उसे कह? सेठ ने कहा कि-भगवंत! दादा परदादा की परंपरा से आया है। साधु ने कहा कि-सत्य बोलो! तब सेठ ने कहा-भगवंत! मुझे स्नान करते यह सारी स्नान की सामग्री आकर मिली है और भोजन करते यह भोजन के बर्तन आदि साधन मिले हैं तथा अनेक निधानों द्वारा भण्डार भी पूर्ण भर गया है। मुनि ने कहा कि-यह सारा 292 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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