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________________ समाधि लाभ द्वार- ऐश्वर्यमद द्वार-दो व्यापारियों की कथा श्री संवेगरंगशाला परम भक्तिपूर्वक सिंह केसरी लड्डु थाल में से मोदक उनको दिये और वह मुनि प्रभु के पास गया, नमस्कार करके उस मुनि ने कहा कि - हे भगवंत ! क्या मेरा अंतराय कर्म आज खत्म हो गया है? प्रभु ने कहा कि -अभी भी उसका अंश विद्यमान है। परमार्थ से यह लब्धि कृष्ण की है, क्योंकि कृष्ण द्वारा तुमको नमस्कार करते देखकर धनाढ्य ने यह लड्डू तुम्हें वहोराए हैं। प्रभु ने जब ऐसा कहा तब अन्य की लब्धि होने से वह महात्मा शुद्ध भूमि को देखकर उन लड्डू को सम्यग् विधि पूर्वक परठने लगे। उसे परठते और कर्मों का कटु विपाकों का चिंतन करते उन्हें शुद्ध शुक्ल ध्यान के प्रभाव से केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर केवली पर्याय को पालकर और भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर, जिसके लिए दीक्षा ली थी वह मोक्षपद प्राप्त किया । इस तरह लाभालाभ कर्माधीन जानकर - हे धीर! लाभ की प्राप्ति वाले भी तुझे अत्यंत प्राप्ति होने पर उसका मद नहीं करना चाहिए। इस तरह सातवाँ लाभमद का स्थान कहा। अब ऐश्वर्य मद को रोकने में समर्थ आठवाँ मद स्थान को संक्षेप से कहता हूँ ।। ६९३८ ।। (८) ऐश्वर्यमद द्वार : - गणिम, धरिम, मेय और पारिछेद्य इस तरह चार प्रकार का धन मुझे बहुत है, और भंडार क्षेत्र तथा वस्तु मकान मुझे अनेक प्रकार का है। चाँदी, सोने के ढेर हैं, आज्ञा के पालन करनेवाले अनेक नौकर हैं, दास दासीजन भी हैं, तथा रथ, घोड़े और श्रेष्ठ हाथी भी हैं। विविध प्रकार की गायें हैं, भैंस, ऊँट आदि हैं, बहुत भंडार हैं, गाँव, नगर और खान आदि हैं, तथा स्त्री, पुत्रादि परिवार अनुरागी हैं। इस तरह मेरा ऐश्वर्य सर्वत्र प्रशस्त पदार्थों के विस्तार से स्थिर है, इससे मानता हूँ कि मैं ही इस लोक में साक्षात् वह कुबेर यक्ष हूँ। इस तरह ऐश्वर्य के आश्रित भी मद सर्वथा नहीं करना चाहिए। क्योंकि संसार में मिले हुए सभी पदार्थ नाशवान हैं। राजा, अग्नि, चोर, हिस्सेदार और अति कुपित देव आदि से धन का क्षय करनेवाले कारण सदा पास में होते हैं। इसलिए उसका मद करना योग्य नहीं है। तथा दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा के व्यापारियों की शास्त्र प्रसिद्ध कथा को सुनकर धन्य पुरुष ऐश्वर्य में अल्पमात्र भी मद नहीं करते । । ६९४५ । । वह कथा इस प्रकार है: दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा के व्यापारियों की कथा जगत प्रभु श्री सुपार्श्वनाथ के मणि के स्तुप से शोभित अति प्रशस्त तीर्थभूत और देवनगरी के समान मनोहर मथुरा नाम की नगरी थी। वहाँ कुबेर तुल्य धन का विशाल समूह वाला लोगों में प्रसिद्ध परम विलासी धनसार नाम का बड़ा धनिक सेठ रहता था । एक समय तथाविध कार्यवश अनेक पुरुषों से युक्त वह दक्षिण मथुरा में गया और वहाँ उसका सत्कार सन्मान आदि करने से उसके समान वैभव से शोभित धनमित्र नामक व्यापारी के साथ स्नेहयुक्त शुद्ध मैत्री हो गयी। एक दिन सुख से बैठे और प्रसन्न चित्त वाले उनमें परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ कि–पृथ्वी के ऊपर घूमते, किसको, किसकी बात नहीं करते? अथवा स्नेह युक्त मैत्री भाव को कौन नहीं स्वीकार करता ? परंतु संबंध बिना की मैत्री बहुत दिन जाने के बाद रेती की बाँधी पाल के समान टूट जाती है। वह संबंध दो प्रकार का होता है। एक मूलभूत और दूसर उत्तर भूत । उसमें पिता, माता, भाई का संबंध मूलभूत होता है, वह हमें आज नहीं है, पुनः उत्तर संबंध विवाह करने से होता है, वह यदि हमारे यहाँ पुत्री अथवा पुत्र जन्म हुआ तो करने योग्य है। ऐसा करने से वज्र से जुड़ी हुई हो ऐसी मैत्री जावज्जीव तक अखंड रहती है। यह कथन योग्य होने से कुविकल्प को छोड़कर दोनों ने उसे स्वीकार किया । फिर धनमित्र को पुत्र का जन्म हुआ और धनसार सेठ के घर पुत्री ने जन्म लिया। उन्होंने पूर्व में स्वीकार करने के अनुसार कबूल कर बालक होने पर भी उनकी परस्पर सगाई की। बाद में धनसार अपना कार्य पूर्णकर अपने नगर में गया, और धनमित्र अपने इष्ट कार्यों में प्रवृत्ति करने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only 291 www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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