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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-लाभमद द्वार-ढंढणकुमार का दृष्टांत स्वभाव से गुण रागी, सम्यग् दान देने से शूरवीर धर्मिष्ठ लोगों वाली द्वारिका नगरी में उस केशी अश्वमुख दैत्य
और कंस के अहंकार को चकनाचूर करनेवाले भरत के तीन खण्ड के राजाओं के मस्तक मणि की कांति से शोभित चरण वाले, यादवों के कुलरूपी आकाश में सूर्य समान श्रीकृष्ण वासुदेव के ढंढणकुमार नाम से पुत्र रूप में जन्म लिया। सर्व कलाओं का अभ्यासकर क्रमशः यौवन वय प्राप्त किया। और अनेक युवान स्त्रियों के साथ विवाह कर दोगुंदक देव के समान विलास करने लगा।
किसी दिन देह की कांति से सभी दिशाओं में कमल के समूह को फैलाते हो वैसे शीतलता से सभी प्राणिओं के संताप को शांत करते तथा साक्षात् शरीर शीतल हो इस तरह अठारह हजार उत्तम साधुओं से युक्त
और धर्मोपदेश देनेवाले शासन प्रभावक वर्ग के हितस्वी श्री अरिष्टनेमि भगवंत ग्रामानुग्राम विचरते हुए द्वारिका नगरी में पधारें और रैवत नामक उद्यान में रहें। इसके बाद भगवान के पधारने के समाचार उद्यानपाल ने नमस्कार पूर्वक श्रीकृष्ण महाराज को दिये। फिर उन्होंने उचित तुष्टि जनक दान देकर यादवों के समूह के साथ श्रीकृष्ण श्री नेमिनाथ भगवान को वंदनार्थ निकले। हर्ष के परम प्रकर्ष से विकसित नेत्रवाले वे श्री जिनेश्वर और गणधर आदि मनियों को नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठे। तीन जगत के नाथ प्रभ ने देव. मनष्य और तिर्यंचों को समझ में आये ऐसी सर्व साधारण वाणी से धर्म देशना प्रारंभ की और अनेक प्राणियों को प्रतिबोध दिया। तथाविध अत्यंत कुशल (पुण्य) कर्म के समूह से भावी में जिसका कल्याण नजदीक है ऐसे ढंढणकुमार ने भी धर्म कथा सुनकर प्रतिबोध प्राप्त किया। इससे अपकारी विकारी दुष्ट रूप दिखनेवाले मित्र के समान अथवा सर्प से भयंकर घर के समान, विषयसुख को त्यागकर उस धन्यात्मा ने प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की। संसार की असारता का चिंतन करते वह सदा श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हैं और विविध तपस्या करते सर्वज्ञ परमात्मा के साथ विचरते थें। इस तरह विचरते ढंढणकुमार के पूर्व जन्म में जो कर्म बंध किया था वह अनिष्ट फलदायक अंतराय कर्म उदय में आया। इससे उस कर्म के दोष से वह जिस साधु के साथ भिक्षा के लिए जाता था उसकी भी लब्धी को खत्म करता था। अहो! कर्म कैसे भयंकर हैं? एक समय जब साधुओं ने उसे भिक्षा नहीं मिलने की बात कही, तब प्रभु ने मूल से लेकर उस कर्म बंध का वृत्तांत कहा। यह सुनकर बुद्धिमान उस ढंढणकुमार मुनि ने प्रभु के पास अभिग्रह किया कि अब से दूसरे की लब्धि से मिला हुआ आहार में कदापि ग्रहण नहीं करूँगा।
इस तरह रणभूमि में प्रवेश करते समय सुभट के समान विषाद रहित प्रसन्न चित्तवाला दुष्कर्म रूपी शत्रुओं के दुःख को अल्प भी नहीं मानता, निर्वाण रूपी श्रेष्ठ भोजन करते तृप्त बना हो इस तरह ढंढण मुनि दिन व्यतीत करता था फिर एक दिन कृष्ण ने भगवान से पूछा कि-हे भगवंत! इन साधुओं में दुष्करकारक कौन है? उसे फरमाइये। प्रभु ने कहा कि-निश्चय ये सभी साधु दुष्करकारक हैं, फिर भी इसमें विशेष दुष्करकारी ढंढणकुमार मुनि है। क्योंकि धीर हृदयवाला, दुःसह उग्र अलाभ परीषह को सम्यग् रूप से सहन करते उसका बहुत काल व्यतीत हो गया है। यह सुनकर वह धन्य है, और कृत पुण्य है कि जिसकी इस तरह जगत प्रभु ने स्वयं स्तुति की है। ऐसा विचारकर कृष्ण जैसे आया था वैसे वापिस गया और नगरी में प्रवेश करते उसने भाग्य योग से उच्च नीच घरों में भिक्षार्थ घूमते उस महात्मा को देखा। इससे दूर से ही हाथी ऊपर से उतरकर परम भक्तिपूर्वक पृथ्वी तल को स्पर्श करते मस्तक द्वारा श्री कृष्ण ने उनको नमस्कार किया। कृष्ण वासुदेव द्वारा वंदन करते उस मुनि को देखकर विस्मित मन वाले घर में रहे एक धनाढ्य सेठ ने विचार किया कि यह महात्मा धन्य है कि जिसको इस तरह देवों के भी वंदनीय वासुदेव सविशेषतया भक्तिपूर्वक वंदन करता है। फिर कृष्ण महाराज वंदन कर जब वापिस चले तब क्रमशः भिक्षार्थ घूमते ढंढणकुमार उस धनाढ्य सेठ के घर पहुँचे। इससे उसने
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