SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-लाभमद द्वार-ढंढणकुमार का दृष्टांत श्री संवेगरंगशाला बोलती, हाथ से रोकती उन दोनों के बीच में पड़ी, ब्राह्मणी को भी काट दिया। फिर तलवार के आधार से दो भाग हुए तड़फते गर्भ को देखकर पश्चात्ताप प्रकट हुआ। फिर दृढ़प्रहारी विचार करने लगा कि-हा! हा! दुःखद है, कि अहो! मैंने ऐसा पाप किया है? इस पाप से मैं किस तरह छुटकारा प्राप्त करूँगा? इसके लिए क्या मैं तीर्थों में जाऊँ? अथवा पर्वत पर जाकर वहाँ से गिरकर मर जाऊँ? अथवा अग्नि में प्रवेश करूँ या क्या गंगा के पानी में डूब मरूँ। पाप की विशुद्धि के लिए अनेक विचारों से उद्विग्न मन वाले उसने एकांत में स्थिर धर्मध्यान में तत्पर मुनि को देखा। परम आदरपूर्वक उनके चरण कमल में नमस्कार करके उसने कहा कि-हे भगवंत! मैं इस प्रकार का महाघोर पापी हूँ, मेरी विशुद्धि के लिए कोई उपाय बतलाओ? मुनि ने उसे सर्व पापरूपी पर्वत को चकनाचूर करने में वज्र समान और शिव सखकारक श्रमण (साध) धर्म कहा। कर्म के क्षयोपशम से उसे वह अमृत के समान अति रुचिकर हुआ और इससे संवेग को प्राप्तकर वह उस गुरु के पास दीक्षित हुआ। फिर जिस दिन उस दुश्चरित्र का मुझे स्मरण होगा उस दिन भोजन नहीं करूँगा। ऐसा अभिग्रह स्वीकारकर वह उसी गाँव में रहा। वहाँ लोग 'वह इस प्रकार के महापापों को करने वाला है' इस प्रकार बोलते उसकी निंदा करते थे और मार्ग में जाते आते उसे मारते थे। वह सब समतापूर्वक सहन करता था, बार-बार अपनी आत्मा की निंदा करता था और आहार नहीं लेता था, धर्मध्यान में स्थिर रहता था। इस तरह उस धीरपुरुष ने कभी भी एक बार भी भोजन नहीं किया। इस प्रकार सर्व कर्म रज को नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। और देव, दानव तथा वाण व्यंतरों ने चंद्र के समान निर्मल गुणों की स्तुति की, क्रमशः अगणित सुख के प्रमाण वाला निर्वाण पद को प्राप्त किया। इसे सम्यग् रूप से सुनकर हे क्षपकमुनि! महान् उग्र तप को करते हुए भी मोक्ष की अभिलाषा वाले तुझे अल्प भी तप मद को नहीं करना चाहिए। यह छट्ठा मद स्थान अल्पमात्र दृष्टांत के साथ कहा। अब सातवाँ लाभ संबंधी मद स्थान कहता हूँ ।।६८८९ ।। (७) लाभमद द्वार :-मनुष्यों को लाभान्तराय नामक कर्म के क्षयोपशम से लाभ होने का उदय होता है और पुनः उससे अलाभ होता है, इसलिए विवेकी जन को लाभ होने पर 'मैं भी लब्धिवंत हूँ ऐसा अपना उत्कर्ष और लाभ नहीं होने पर विषाद नहीं करना चाहिए। जो इस जन्म में लाभ प्राप्त करने वाला होता है उसे कर्मवश अन्य जन्म में भिक्षा की प्राप्ति भी नहीं होती है। इस विषय पर ढंढणकुमार मुनि का दृष्टांत है ।।६८९२।। वह इस प्रकारः श्री ढंढणकुमार मुनि का दृष्टांत मगध देश में धन्यपुर नामक श्रेष्ठ गाँव था, वहाँ कृशी पारासर नाम से धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। पूर्वोपार्जित पुण्य के आधीन वह धन के लिए खेती आदि जो कोई भी उपाय करता था उसे उसको लाभ के लिए होता था। और श्रेष्ठ अलंकार, दिव्य वस्त्र तथा पुष्पों से मनोहर शरीर वाला वह 'लक्ष्मी का यह फल है' ऐसा मानता स्वजनों के साथ विलास करता था। मगध राजा के आदेश से गाँव के पुरुषों द्वारा पांच सौ हल से वह हमेशा अनाज बोता था। फिर राजा के खेत से निवृत्त हुए किसान भोजन का समय होते भूख से पीड़ित और बैल थक जाते थे फिर भी बलात्कार पूर्वक निर्दय युक्त उसी समय अपने खेत में उनके द्वारा एक बार कार्य करवाता था। और उस निमित्त से उसने गाढ़ अंतराय कर्म बंध किया। फिर वह मरकर नरक भूमि में नरक का जीव बना। वहाँ से निकलकर विविध भेदवाली तिर्यंच योनियों में उत्पन्न हुआ और किसी तरह पुण्य उपार्जन होने से देव और मनुष्य में भी जन्म लिया ।।६९०० ।। फिर सौराष्ट्र देश में समुद्र के संग से अथवा पवित्र लावण्य को प्राप्त करने वाली, मनोहर शरीर वाली, स्त्रियों से शोभित, विशिष्ट धन धान्य से समृद्धशाली, प्रत्यक्ष देवलोक के समान और 289 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy