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________________ समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला कारक बनता है। अतः संसार वास से थके हुए वैरागी धन्य पुरुष दुःख की हेतुभूत स्त्री की आसक्ति रूपी बंधन को तोड़कर श्रमण बने हैं। धन्य पुरुष आत्महित कर कथन सुनते हैं, अति धन्य सुनकर आचरण करते हैं और उससे अति धन्य सद्गति का मार्गभूत गुण के समूह रूप शील में प्रेम करते हैं ।।८९४७।। जैसे दावानल तृण समूह को जलाता है वैसे सम्यग् ज्ञान रूपी वायु की प्रेरणा से और शील रूपी महाज्वालाओं वाली विकृष्ट (उग्र) तप रूपी अग्नि संसार के मूल बीज को जलाती है। निर्मलशील का पालन करने वालों की आत्मा इस लोक और परलोक में भी 'यही परमात्मा है' इस प्रकार लोगों से गौरव को प्राप्त करती है। सत्य प्रतिज्ञा में तत्पर शील के बल वाली आत्मा उत्साहपूर्वक लीला मात्र से अत्यंत महा भयंकर दुःखों से भी पार हो जाती है। शील रूपी अलंकार से शोभते आत्मा को उसी समय (शील भंग के प्रसंग पर) मर जाना अच्छा है परंतु शील अलंकार से भ्रष्ट हुए का लम्बा जीवन श्रेष्ठ नहीं है। निर्मलशील की परिपालना के लिए बारबार शत्रुओं के घरों में भिक्षा के लिए भ्रमण करना अच्छा है किंतु विशाल शील को मलिन करनेवाला चक्रवर्ती जीवन भी अच्छा नहीं है। परंतु बड़े पर्वत के ऊँचे शिखर से कहीं विषम खीण के अंदर अति कठोर पत्थर में गिरकर अपने शरीर के सौ टुकड़े करना श्रेष्ठ है और अति कुपित हुए बड़ी फुकार वाला भयंकर और खून के समान लाल नेत्र वाला, जिसके सामने देख भी नहीं सकते, ऐसे सर्प के तीक्ष्ण दाढ़ों वाले मुख में हाथ डालना उत्तम है, तथा आकाश तक पहुँची हुई हो, देखना भी असंभव हो, अनेक ज्वालाओं के समूह से जलती प्रलय कारण प्रचंड अग्निकुंड में अपने को स्वाहा करना अच्छा है और मदोन्मत्त हाथियों के गंड स्थल चीरने में एक अभिमानी दुष्ट सिंह के अति तीक्ष्ण मजबूत दाढ़ों से कठिन मुख में प्रवेश करना अच्छा है परंतु हे वत्स! तुझे संसार के सुख के लिए अति दीर्घकाल तक परिपालन किये हुए निर्मलशील रत्न का त्याग करना अच्छा नहीं है। शील अलंकार से शोभित निर्धन भी अवश्यमेव लोकपूज्य बनता है, किंतु धनवान होने पर भी दुःशील स्वजनों में भी पूजनीय नहीं बनता है। निर्मलशील को पालन करने वालों का जीवन चिरकालिक हो परंतु पापासक्त जीवों के चिरकाल जीने से कोई भी फल नहीं है। इसलिए धर्म गुणों की खान समान, हे भाई क्षपक मुनि! आराधना में स्थिर मन वाले तं गरल के समान दराचारी जीवन खत्म कर. मनोहर चंद्र के किरण समान निर्मल-निष्कलंक और संसार की परंपरा के अंकुर को नाश करने वाला, देव दानव के समूह के चित्त में चमत्कार करनेवाला मोक्ष नगर की स्थापना करने में खूटे समान जीवों की पीड़ा के त्याग रूप दुर्गति मार्ग की अवज्ञा कारक, पाप प्रवृत्ति में अनादर करने वाला, और परमपद रूपी ललना के साथ लीला करनेवाला निर्मलशील का परिपालन कर। इस तरह पंद्रहवाँ शील परिपालन द्वार कहा। अब इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ अंतर द्वार कुछ अल्प मात्र कहता हूँ ।।८९६३।। वह इस प्रकारःइन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार : जीव अर्थात् 'इन्द्र' और 'आ' लगाने से इन्द्रियाँ शब्द बना है। और जीव ज्ञानादि गुण रूपी लक्ष्मी का क्रीड़ा करने का महल सदृश है और इन्द्रियाँ निश्चय उस महल के झरोखे आदि अनेक द्वार समान है, परंतु उस इन्द्रियों में अपने-अपने शब्दादि विषयों की विरति रूप दरवाजों के अभाव में प्रवेश करते अनेक कुविकल्पों की कल्पना रूप पापरज के समूह से चंद्र किरण समान उज्ज्वल भी ज्ञानादि गुण लक्ष्मी अत्यंत मलिन होती है। अथवा इन्द्रिय रूपी द्वार बंद नहीं होने से जीव रूपी प्रासाद में प्रवेश करके दुष्ट विषय रूपी प्रचंड लूटेरे ज्ञानादि लक्ष्मी को लूट रहे हैं। इस प्रकार सम्यक् समझकर, हे धीर! उस ज्ञानादि के संरक्षण के लिए प्रयत्न करनेवाले तुम सर्व इन्द्रिय रूपी द्वार को अच्छी तरह बंद कर रखो। स्वशास्त्र-परशास्त्र के ज्ञान के अभ्यास से महान पंडित - 373 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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