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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-शील पालन नामक पंद्रहवाँ द्वार काण्ड नामक ग्रंथ आदि, ज्योतिष के ग्रंथ तथा मनुष्य, घोड़े, हाथी आदि के वैद्यक शास्त्र, और धनुर्वेद, धातुर्वाद आदि पापकारी उपदेश करने वाले गुरु जीवों के घातक हैं तथा बावड़ी, कुएँ, तालाब आदि का उपदेश सद्गुरु नहीं देते हैं। क्योंकि-असंख्यात जीवों का विनाश करके अल्प की भक्ति नहीं होती है। इसीलिए ही जीवों की अनुकंपा वाले हो वे सुगुरु निश्चय से हल, गाड़ी, जहाज, संग्राम अथवा गोधन आदि के विषय में उपदेश भी कैसे दे सकते है? अतः कष, छेद आदि से विशुद्ध धर्म गुरु द्वारा धर्म रूपी सुवर्ण के दातार गुरु की ही यहाँ इस भावना में दुर्लभता कही है।
___ इसलिए हे भद्रक मुनि! भयंकर संसार की दीवार तोड़ने के लिए हाथी की सेना समान समर्थ बारह भाटमाओं को संवेग के उत्कर्षपूर्वक चित्त से चिंतन कर। दृढ़ प्रतिज्ञा वाला साधु जैसे-जैसे वैराग्य से वासित होता है वैसे-वैसे सूर्य से अंधकार का नाश हो उसी तरह कर्म अथवा दुःख क्षय होता है। प्रति समय पूर्ण सद्भावपूर्वक भावनाओं के चिंतन से भव्यात्मा के चिर संचित कर्म अतितीव्र अग्नि के संगम से मोम पिघलता है वैसे पिघल जाते हैं। नये कर्मों का बंध नहीं करता है और यथार्थ भावना में तत्पर जीव को चीभडे की उत्कट गंध से सुखडी का छेदन भेदन हो जाता है वैसे पुराने कर्मों का छेदन हो जाता हैं। अखंड प्रचंड सूर्य के किरणों से ग्रसित बर्फ के समान शुभ भावनाओं से अशुभ कर्मों का समूह क्षय हो जाता है। इसलिए ध्यानरूपी योग की निद्रा से अर्द्ध बंद नेत्र वाला संसार से डरा हुआ, तूं हे सुंदर मुनि! संसार पर अनासक्त भाव से बारह भावनाओं का चिंतन कर। इस तरह बारह प्रकार की भावनाओं के समूह नामक यह चौदहवाँ अंतर द्वार कहा है अब पंद्रहवाँ शील पालन नामक अंतर द्वार कहता हूँ ।।८९३२।। शील पालन नामक पंद्रहवाँ द्वार :
निश्चयनय से शील आत्मा का स्वभाव है। और व्यवहार नय से आश्रव के द्वार को रोककर चारित्र का पालन करना उसे शील कहते हैं। अथवा शील मन की समाधि है। पुरुष स्वभाव दो प्रकार का है प्रशस्त और अप्रशस्त। उसमें जो राग, द्वेष आदि से कलुषित है वह अप्रशस्त है और चित्त की सरलता, राग, द्वेष की मंदता और धर्म के परिणामवाला है वह प्रशस्त स्वभाव है। यहाँ प्रशस्त स्वभाव का वर्णन किया है। इस प्रकार अति प्रशस्त स्वभाव रूपी शील जिसका अखंड है, वह मूल गुणों की आधार शिला है, इससे दूसरे भी गुण समूह को धारण करता है। चारित्र दो शब्दों से बना है, चय+रिक्त-चारित्र चय अर्थात् कर्म का संचय और रिक्त अर्थात् अभाव है अर्थात् जहाँ कर्म संचय का अभाव हो उसे चारित्र कहते हैं। और वह चारित्र शास्त्रोक्त विधि निषेध के अनुसार अनुष्ठान है और वह आश्रव की विरति से होता है। क्योंकि चारित्र पालन रूप शील की वृद्धि के लिए ही आश्रव का निरोध करने में समर्थ यह उपदेश ज्ञानियों ने दिया है। जैसे कि-निर्जरा का अर्थी सदा इन्द्रियों का दमन करके और कषाय रूप सर्व सैन्य को नष्ट करके आश्रव द्वार को रोकने के लिए प्रयत्न करता है। क्योंकि जैसे रोग से पीड़ित मनुष्य को अपथ्य-अहित आहार छोड़ने से रोग का नाश होता है वैसे इन्द्रिय और कषायों को जीतने से आश्रव का नाश होता ही है। इसलिए ही समस्त जीवों के प्रति मुनि स्वात्म तुल्य वर्तन करते हैं। सद्गति की प्राप्ति के लिए इससे अन्य उपाय ही नहीं है। अतः ज्ञान से, ध्यान से, और तप के बल से, बलात्कार से भी सर्व आश्रव द्वार को रोककर निर्मल शील को धारण करना हैए। और मन समाधि रूपी शील को भी मोक्ष साधक गुणों के मूल कारण रूप जानना। सूत्र में कहा है कि को समाधि है उसे तप है और जिसे तप है उसे सद्गति सुलभ है। जो पुरुष असमाधिवाला है उसको तप भी : र्लभ है। एवं करण नाम से साधक रूप, मन, वचन और काया इसे तीन योग कहा है वह भी समाधि वाले का गुणकारी है। है और असमाधि वालों को दोष
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