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समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा
श्री संवेगरंगशाला
धर्मोपदेशक गुरु गुण :उपदेश देनेवाले गुरु के गुण - ( १ ) स्वशास्त्र परशास्त्र के जानकार, (२) संवेगी, (३) दूसरों को संवेग प्रकट कराने वाले, (४) मध्यस्थ, (५) कृतकरण, (६) ग्राहणा कुशल, (७) जीवों पर उपकार करने में रक्त, (८) दृढ़ प्रतिज्ञा वाला, (९) अनुवर्तक और (१०) बुद्धिमान हो, वह श्री जिन कथित धर्म पर्षदा (सभा) में उपदेश देने के लिए अधिकारी है। उसमें :
(१) स्वशास्त्र - परशास्त्र के जानकार :- परदर्शन के शास्त्रों से जैन धर्म की विशेषता को देखे, जाने, इससे वह श्री जैनधर्म में उत्साह को बढ़ावे, और श्री जिनमत का जानकार होने से समस्त नयों से सूत्रार्थ को समझावें एवं उत्सर्ग अपवाद के विभाग को भी यथास्थित बतलावे । (२) संवेग :- परमार्थ सत्य को कहने वाला होता है ऐसी प्रतीति असंवेगी में नहीं होती है, क्योंकि असंवेगी चरण-करण गुणों का त्याग करते अंत में समस्त व्यवहार को भी छोड़ता है। सुस्थिर गुण वाले संवेगी का वचन घी, मद्य से सिंचित अग्नि के समान शोभता है। जब गुणहीन के वचन तेल रहित दीपक के समान नहीं शोभते हैं। (३) अन्य को संवेगजनक :- सदाचारी आचार की प्ररूपणा (उपदेश) में निःशंकता से बोल सके, आचार भ्रष्ट मुनि चारित्र का शुद्ध उपदेश दे, ऐसा एकांत नहीं है। लाखों जन्म के बाद श्री जिन वचन मिलने के बाद उसे भाव से छोड़ देने में जिसको दुःख न हो उसे दूसरे दुःखी होते देखकर दुःख नहीं होता है। वह दूसरे में संवेग उत्पन्न नहीं करवा सकता। जो यथाशक्य आ में उद्यम करता हो, वही दूसरे को संवेग प्रकट करवा सकता है। (४) मध्यस्थ :- मध्यस्थ रहने वाला, (५) कृत करण :- दृढ़ अभ्यासी और, (६) ग्राहणा कुशल :- समझाने में चतुर। इन तीनों गुण युक्त गुरु सामने आये हुए श्रोताको अनुग्रह करते है, (७) परोपकार में रक्त :- ग्लानि बिना 'बार-बार वाचना दे' इत्यादि द्वारा शिष्यों को सूत्र अर्थ अति स्थिर परिचित दृढ़ करा दे, (८) दृढ़ प्रतिज्ञा वाला :- अल्प ज्ञान वालों समक्ष अपवाद का आचरण न करें, परंतु दृढ़ प्रतिज्ञा वाला हो, (९) अनुवर्तक :- अलग-अलग क्षयोपशम वाले शिष्यों को यथा योग्य उपदेशादि द्वारा सन्मार्ग में चढ़ाये और (१०) मतिमान् :- अवश्यमेव समस्त उत्सर्ग अपवाद के विषयों को और विविध मतों (पंथों) के उपदेश योग्य, परिणत, अपरिणत या अतिपरिणत आदि शिष्यों को जानें। इस प्रकार उपदेश देने की योग्यता वाले धर्मोपदेशक गुरु जानना । । ८९१३ ।।
जो पृथ्वी के समान सर्व सहन करने वाला हो, मेरु के समान अचल धर्म में स्थिर और चंद्र के समान सौम्य लेश्यावाला हो उस धर्म गुरु की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। देश काल का ज्ञाता, विविध हेतुओं का तथा कारणों के भेद का ज्ञाता और संग्रह तथा उपग्रह सहायता करने में जो कुशल हो उस धर्म गुरु की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। लौकिक, वैदिक और लोकोत्तर, अन्यान्य शास्त्रों में जो लब्धार्थ - स्वयं रहस्य का ज्ञाता हो तथा गृहितार्थ अर्थात् दूसरों से पूछकर अर्थ का निर्णय करने वाला हो, उस धर्मगुरु की ज्ञानी प्रशंसा करते हैं। अनेक भवों में परिभ्रमण करते जीव उस क्रियाओं में, कलाओं में और अन्य धर्माचरणों में उस विषय के ज्ञाता हजारों धर्म गुरुओं को प्राप्त करते हैं परंतु श्री जिन कथित निर्ग्रन्थ प्रवचन में जिनशासन में संसार से मुक्त होने के मार्ग के ज्ञाता जो धर्म गुरु हैं वे यहाँ मिलने दुर्लभ हैं। जैसे एक दीपक से सैंकड़ों दीपक प्रकट होते हैं। और दीपक प्रति प्रदेश को प्रकाशमय बनाता है वैसे दीपक समान धर्मगुरु स्वयं को और जिन शासन रूपी घर को प्रकाशमय करते हैं। धर्म को सम्यग् जानकर, धर्म परायण, धर्म को करने वाले, और जीवों को धर्मशास्त्र के अर्थ को बतानेवाले को सुगुरु कहते हैं।
चाणक्य नीति, पंचतंत्र और कामंदक नामक नीति शास्त्र आदि राज्य नीतियों की जन रंजनार्थे व्याख्या करने वाले गुरु निश्चय से जीवों का हित करनेवाले नहीं हैं। तथा वस्तुओं की भावी तेजी मंदी बतानेवाले अर्थ
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