________________
श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा प्रशम गुण युक्त महात्मा को गुरु कहा है। समस्त अनर्थों का भंडार विकार रूपी सुरापान और अशुचि मूलक विषय रूपी मांस का यदि सदाकाल त्याग करे, उसका गुरुत्व स्पष्ट है। यदि गृहस्थ शिष्य के समान गुरु को भी हल, खेत, गाय, भैंस, घर, स्त्री, पुत्र और विविध वस्तुओं का व्यवहार हो तो उसके गुरुत्व से क्या लाभ? जो पापारंभ गृहस्थ शिष्य को हो वही यदि गुरु को भी हो तो अहो! आश्चर्य की बात है कि लीला मात्र में अर्थात् कष्ट बिना संसार समुद्र को उसने पार किया है। यहाँ कटाक्ष वचन होने से वस्तुतः वह डूबा है, ऐसा समझना। यदि प्राणांत में भी सर्व प्रकार से पर पीडा करने का चिंतन न करें वह जीव माता के तल्य और करुणा के एक रसवाले को गुरु कहा है। जो पुरुष विषय रूपी मांस में आसक्त हो वह अन्य जीवों को ठगने की इच्छा करता है और इस विषय से विरक्त हो तो वह परमार्थ से गुरु है। नित्य, बाल, ग्लान आदि को यथायोग्य संविभाग देकर वह भी स्वयं किया, करवाया या अनुमोदन किया न हो, सकल दोष रहित, वह भी वैयावच्चादि कारण से ही
और राग, द्वेष आदि दोषों से रहित अल्प-अल्प प्राप्त किया भोजन करता है उसे ही सत्य साधु कहते हैं। सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित जो हमेशा राग का त्यागी है, अर्थात् द्रव्यादि की ममता नहीं है, उसे ही सत्य गरु कहा है। तप से कश शरीर वाले भी व्यास आदि महामनि जो ब्रह्मचर्य में पराजित हए हैं. वे गुरु पद में नहीं आ सकते अतः उस घोर ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले ही भाव गुरु हैं। यदि नित्य अति उछलते स्वपर उभय के कषाय रूपी अग्नि को प्रशम के उपदेश रूपी जल से शांत करने में समर्थ है और क्षमादि दस प्रकार के यति धर्म के निर्मल गुण रूप मणिओं को प्रकट कराने में रोहणाचल पर्वत की भूमि समान हो, उसे श्री जिनेश्वर भगवान ने इष्ट गुरु कहा है।
गुरु कैसे= जो पाँच समिति वाले, तीन गुप्ति वाले, यम नियम में तत्पर महासात्त्विक और आगम रूपी अमृत रस से तृप्त है, उन्हें भाव गुरु कहा हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषा के विशिष्ट वचन द्वारा शिष्य को पढ़ाने में कुशल जो प्रियभाषी है वे भाव गुरु हैं। जिस तरह राजा को उसी तरह रंक को भी प्रशम जन्य चित्त वृत्ति से सद्धर्म को कहे, वे भाव प्रधान गुरु हैं। सुख और दुःख में, तृण और मणि में, तथा कनक और कथिर में भी समान हैं, अपमान और सन्मान में भी समान हैं तथा मित्र शत्रु में भी समान हैं, राग, द्वेष रहित धीर है, वे गुरु होते हैं। शरीर और मन के अनेक दुःखों के ताप से दुःखी संसारी जीवों को चंद्र के समान यदि शीतलकारी हो, उनका गुरुत्व हैं। जिनका हृदय संवेगमय हो, वचन सम्यक् संवेगमय हो और उनकी क्रिया भी संवेगमय हो, वे तत्त्वतः सद्गुरु हैं। यदि सावद्य, निरवद्य भाषा को जाने और सावद्य का त्याग करें, निरवद्य वचन भी कारण से ही बोले, उन गुरु का आश्रय करो। क्योंकि
सवज्जऽणवज्जाणं वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं ।।८८७८।।
सावध, निरवद्य वचनों के भेद को जो नहीं जानता, उसे बोलना भी योग्य नहीं है, तो उपदेश देने के लिए तो कहना ही क्या? इसलिए जो हेतुवाद पक्ष में-युक्तिगम्य भावों में हेतु से और शास्त्र ग्राह्य, श्रद्धेय भावों में आगम से समझाने वाला हो वह गुरु है। इससे विपरीत उपदेश देने वाला श्री जिनवचन का विराधक है। क्योंकि अपनी मति कल्पना से असंगत भावों का पोषण करने वाला मूढ़ वह दूसरों के लिए 'मृषावादी सर्वज्ञ है।'।।८९०० ।। वह मिथ्या बुद्धि पैदा करता है। अविधि से पढ़ा हुआ, कुनयों के अल्पमात्र से अभिमान मूढ़ बना हुआ जिनमत को नहीं जानता वह उसे विपरीत कहकर स्व-पर उभय को भी निश्चय रूप से दुर्गति में पहुँचाता
है।
370 Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org