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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार पुरुष भी उसके वेग को नहीं रोकने से बलवान इन्द्रिय के समूह से पराभूत होते हैं। व्रतों को धारण करो अथवा तपस्या करो, गुरु का शरण स्वीकार करो, अथवा सूत्र अर्थ का स्मरण करो, किंतु इन्द्रिय दमन से रहित जीव को वह सब छिलके कूटने के समान निष्फल हैं। मद से प्रचंड गंड स्थलवाले हाथियों की घटा को नाश करने में एक समर्थ जीव यदि इन्द्रिय का विजेता नहीं है तो वह प्रथम नंबर का कायर ही है। वहाँ तक ही बड़प्पन है, वहाँ तक ही कीर्ति तीन भवन के भूषण रूप है और पुरुष की प्रतिष्ठा भी वहाँ तक है कि जब तक इन्द्रिय उसके वश में है। और यदि वही पुरुष उन इन्द्रियों के वश में है तो कुल में, यश में, धर्म में, संघ में, माता-पितादि गुरुजनों में तथा मित्र वर्ग में वह अवश्य काजल लीपता है अर्थात् कलंकित करता है। दीनता, अनादर और सर्व लोगों का शंका पात्र बनता है। अरे! वह क्या-क्या अनिष्ट है कि इन्द्रियों के वश पड़े को प्राप्त न हो? अर्थात् विषयासक्त सर्व अनिष्टों को प्राप्त करता है। मस्तक से पर्वत को भी तोड सकते हैं. ज्वालाओं से यक्त विकराल अग्नि भी पी सकते हैं और तलवार की धार पर भी चल सकते हैं, परंतु इन्द्रिय रूपी घोड़ों को वश करना दुष्कर है। अरे! हमेशा विषय रूपी जंगल को प्राप्त करते-अर्थात् विषय में रमण करते निरंकुश के समान दुर्वांत इन्द्रिय रूपी ऐरावत हाथी जीव के शील रूप वन को तोड़ते-फोड़ते परिभ्रमण करता है। जो तत्त्व का उपदेश देते हैं, तपस्या भी करते हैं और संजम गुणों का भी पालन करते हैं वे भी जैसे नपुंसक युद्ध में हारते हैं वैसे इन्द्रियों को जीतने में थक जाते हैं। शक्र जो हजार आँखों वाला हुआ, कृष्ण जो गोपियों के हास्य पात्र बनें, ब्रह्मा भी जो चतुर्मुख बनें, काम भी जलकर भस्म हुआ, और महादेव भी जो अर्धस्त्री शरीर धारी बनें वे सारे दुर्जय इन्द्रिय रूपी महाराजा का पराक्रम है। जीव पाँच के वश होने से समग्र जीव लोक के वश होता है और पाँचों को जय करने से समस्त तीन लोक को जीतता है। यदि इस जन्म में इन्द्रिय दमन नहीं किया तो अन्य धर्मों से क्या है? और यदि सम्यग रूप से उन इन्द्रिय का दमन किया तो फिर शेष अन्य धर्मों से क्या? ।।८९८१।।
अहो! इन्द्रिय का समूह अति बलवान है, क्योंकि दमन करने का अर्थि और शास्त्र प्रसिद्ध दमन करने के उपायों को जानते हुए भी पुरुष उसे नहीं कर सकते हैं। मैं मानता हूँ कि श्री जिनेश्वर और जिनमत में रहनेवाले आराधकों को छोड़कर अन्य किसी ने तीन लोक में समर्थ बलवान इन्द्रियों को जीती नहीं है, जीतता नहीं है और जीतेगा भी नहीं। इस जगत में जो इन्द्रियों का विजयी है, वही शूरवीर है, वही पंडित है, वही अवश्य गुणी है
और वही कुल दीपक है। जगत में जिसका प्रयोजन-ध्येय इन्द्रिय दमन का है, उसके गुण, गुण हैं और यश यशरूप हैं, उसको सुख हथेली में रहा है, उसे समाधि है और वही मतिमान है। देवों की श्रेणी से पूजित चरणकमल वाला इन्द जो स्वर्ग में आनंद करता है, फणा के मणि की कांति से अंधकार को नाश करने वाला फणीन्द्र नागराज भी जो पाताल में आनंद करता है अथवा शत्रु समूह को नाश करने चक्रवर्ती के हाथ में चक्र झूलता है, वह सब जलती हुई इन्द्रियों को अंश मात्र दमन करने की लीला का फल है। उसको नमस्कार करो, उसकी प्रशंसा करो, उसकी सेवा करो और उसके सहायक बनों या शरण स्वीकार करो कि जिसने दुर्दम इन्द्रिय रूपी गजेन्द्र को अपने आधीन किया है। वही सद्गुरु और सुदेव है, इसलिए उसे ही नमस्कार करो। उसने जगत को शोभायमान किया है कि विषय रूपी पवन से प्रेरित होते हुए भी जिनकी इन्द्रिय रूपी अग्नि नहीं जलती है। उसने जन्म को पुण्य से प्राप्त किया है और जीवन भी उसका सफल है कि जिसने इन दुष्ट इन्द्रियों के बलवान विकार को रोका है। इसलिए हे देवानुप्रिय! तुझे हितकर कहता हूँ कि तूं भी इस प्रकार का विशिष्ट वर्तन कर कि जिसे इन्द्रिय आत्मरागी-निर्विकारी बनें। इन्द्रिय जन्य सुख वह सुख की भ्रान्ति है, परंतु सुख नहीं है, वह सुख भ्रान्ति भी अवश्य कर्मों की वृद्धि के लिए है। और उन कर्मों की वृद्धि भी एक दुःख का ही कारण है। इन्द्रियों के विषयों
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