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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार जाए और वहाँ सर्वत्र उस तृणों को समान रूप से बिछा दे। यदि उस तृण के ऊपर मृतक का मस्तक, मध्य में कटिभाग और नीचे पैर का भाग में विषम-ऊँचा, नीचा हो, तो अनुक्रम से आचार्य, वृषभ साधु और सामान्य साधु का मरण अथवा बीमारी होगी। जहाँ तृण न हो वहाँ चूर्ण-वास से अथवा केसर के पानी की अखंड धारा से स्थंडिल भूमि के ऊपर मस्तक के भाग में 'क' और नीचे पैर के भाग में 'त' अक्षर लिखे। मृतक किसी समय उठकर यदि भागे तो उसे गाँव की तरफ जाने से रोके, मृतक का मस्तक गाँव की दिशा तरफ रखना चाहिए। और अपने को उपद्रव नहीं करे इसलिए साधुओं द्वारा मृतक की प्रदक्षिणा हो इस तरह वापिस नहीं आना। साधु की मृतक निशानी के लिए रजोहरण, चोल पट्टक, मुहपत्ति मृतक के पास में रखे। निशानी नहीं रखने से दोष उत्पन्न होता है जैसे कि क्षपक मुनि देव हुआ हो फिर ज्ञान से मृतक को देखे तब चिन्ह के अभाव में पूर्व में स्वयं को मिथ्यात्वी मानकर वह मिथ्यात्व को प्राप्त करता है अथवा किसी लोगों ने इसका खून किया है ऐसा मानकर राजा गाँव के लोगों का वध बंधन करता है। इस तरह अन्य भी अनेक दोष श्री आवश्यक निर्यक्ति आदि अन्य ग्रंथ में कहे हैं। वहाँ से जान लें। जो साधु जहाँ खड़े हों वहाँ से प्रदक्षिणा न हो इस तरह वापिस आयें और गुरु महाराज के पास आकर परठने में अविधि हई हो उसका काउस्सग्ग करें, परंत वहाँ नहीं करे। काल करने वाला यदि आचार्यादि या रत्नादिक बड़े प्रसिद्ध साधु हो अथवा अन्य साधु के सगे संबंधी या जाति वाले हों तो अवश्यमेव उपवास करना और अस्वाध्याय रखना, परंतु स्व पर यदि अशिवादि (रोगादि) हो तो उपवास नहीं करना। सूत्रार्थ में विशारद गीतार्थ स्थवीर दूसरे दिन प्रातःकाल क्षपक के शरीर को देखे और उसके द्वारा उसकी शुभाशुभ गति जाने। यदि मृतक का मस्तक किसी मांसाहारी पशु-पक्षी द्वारा वृक्ष या पर्वत के शिखर पर ले गया होतो मुक्ति को प्राप्त करेगा। किसी ऊँची भूमि के ऊपर गया हो तो विमानवासी देव हुआ, समभूमि में पड़ा हो तो ज्योतिषी-वाण व्यंतर देव तथा खड़े में गिरा हो तो भवनपति देव हआ है ऐसा जानना। जितने दिन वह मतक दूसरे से अस्पर्शित और अखंड रहे उतने वर्षों तक उस राज्य में सुकाल कुशल और उपद्रव का अभाव होता है। अथवा माँसाहारी श्वापद क्षपक के शरीर को जिस दिशा में ले जाए उस दिशा में सुविहित साधु के विहार योग्य सुकाल होता है। इस तरह श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर ने रची हुई सद्गति में जाने के सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौवाँ अंतर द्वारवाला चौथा समाधि लाभ द्वार में विजहना नाम का नौवाँ अंतर द्वार कहा। यह कहने से समाधि लाभ नामक चौथा मूल द्वार पूर्ण किया और यह पूर्ण होने से यहाँ यह आराधना शास्त्र-संवेगरंगशाला पूर्ण हुआ ।।९८३६ ।। इस प्रकार महामुनि महासेन को श्री गौतम गणधर देव ने जिस प्रकार यहाँ कहा था उसी प्रकार सब यहाँ पर बतलाया है। अब पूर्व में गाथा ६४० में जो कहा था कि जिस तरह उसकी आराधना कर वह महासेन मुनि सिद्ध पद को प्राप्त करेगा उसका शेष अधिकार को अब श्री गौतम स्वामी के कथनानुसार संक्षेप में कहता हूँ। महासेन मुनि की अंतिम आराधना :- तीन लोक के तिलक समान और इन्द्र से वंदित श्री वीर परमात्मा के शिष्य श्री गौतम स्वामी ने इस तरह पूर्व में जिसका प्रस्ताव किया था उसे साधु वर्ग और गृहस्थ संबंधी आराधना विधि को विस्तारपूर्वक दृष्टांत सहित परिपूर्ण महासेन मुनि को बतलाकर कहा है कि-भो! भो! महायश! तुमने जो पूछा था उसे मैंने कहा है, तो अब तुम अप्रमत्त भाव में इस आराधना में उद्यम करना। क्योंकि वे धन्य हैं, सत्पुरुष हैं जिन्होंने मनुष्य जन्म पुण्य से प्राप्त किया है और निश्चयपूर्वक जिन्होंने इस आराधना को संपूर्ण स्वीकार किया है। वही शूरवीर है, वही धीर है कि जिसने श्री संघ के मध्य में यह आराधना 408 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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