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________________ समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला लूटे गये हैं। इस तरह रोने के शब्द बोलना आदि शोक नहीं करना, क्योंकि ऐसा करने से शीघ्र शरीर क्षीण होता है ।।९८००।। सारा बल क्षीण होता है. स्मति नाश होती है, बुद्धि विपरीत होती है, पागलपन प्रकट हृदय रोग भी हो सकता है। इन्द्रियों की शक्ति कम होती है, किसी तरह क्षुद्र देवी ठगती है और शास्त्र श्रवण से प्रकट हुआ शुभ विवेक का भी नाश होता है, लघुता होती है और लोग में अत्यंत विमूढत्व माना जाता है। अधिक क्या कहें? शोक सर्व अनर्थों का समूह है। इसलिए उसे दूर छोड़कर निर्यामक महामुनि अति अप्रमत्त चित्त से इस तरह संसार स्थिति का विचार करे कि-हे जीव! तूं शोक क्यों करता है? क्या तूं नहीं जानता कि जो यहाँ जन्म लेता है, उसका मरण है, पुनः जन्म और पुनः मरण अवश्यभावी हैं? यह मरण रुकता नहीं है, अन्यथा दुष्ट भस्म राशि ग्रह के उदय होने पर भी और इन्द्र की विनती होने पर भी अतुल बल-वीर्य वाले, तीन जगत के परमेश्वर श्री वीर परमात्मा ने सिद्धि गमन के समय थोड़ी भी राह नहीं देखी। और दीर्घ काल तक सुकृत्य का संचय करने वाले गुण श्रेणी के आधारभूत अतिचार रूप कीचड़ से रहित निरतिचार संयम के उद्यम में प्रयत्नशील और आराधना की साधना कर काल धर्म को प्राप्त करने वाले उस क्षपक मुनि का शोक करना अल्पमात्र भी योग्य नहीं है। इस विषय में अधिक क्या कहें? इस प्रकार सम्यग् विचारकर धीर वह निर्यामक उद्वेग रहित शीघ्र उसे करने योग्य समग्र विधि करें। केवल काल हुए का मृत शरीर वसति के अंदर अथवा बाहर भी हो, यदि अंदर हो तो निर्यामक इस विधि से उसे परठे, त्याग करे। महा पारिष्ठापना की विधि :- साधु जब मास कल्प अथवा वर्षा कल्प (चौमासा) रहे, वहाँ गीतार्थ सर्व प्रथम महा स्थंडिल अर्थात् मृतक परठने की निरवद्य भूमि की खोज करें। फिर किस दिशा में परठना? उसके लिए विधि कहते हैं-(१) नैऋत्य, (२) दक्षिण, (३) पश्चिम, (४) अग्नेयी, (५) वायव्य, (६) पूर्व, (७) उत्तर और (८) ईशान। इस क्रमानुसार प्रथम दिशा में परठने से अन्न पानी सुलभ होता है, दूसरी दिशा में दुर्लभ होता है, तीसरी में उपधि नहीं मिलती, चौथे में स्वाध्याय शुद्ध नहीं होता, पाँचवे में कलह उत्पन्न होता है, छटे में उनका गच्छ भेद होता है, सातवें में बीमारी और आठवें में मृत्यु होती है। उसमें भी यदि प्रथम दिशा में व्याघात किसी प्रकार का विघ्न हो तो दूसरे नंबर वाली दिशा आदि में क्रमशः वह गुणकारी होती है जैसे कि नैऋत्य प्रथम श्रेष्ठ कही है वहाँ यदि विघ्न हो तो दूसरी दक्षिण दिशा प्रथम दिशा के समान गुण करती है। दूसरी दिशा में भी यदि विघ्न आता हो तो तीसरी पश्चिम प्रथम दिशा के समान गुण करती है। इससे सर्व दिशाओं में मृतक को परठने की शुद्ध भूमि की खोज करना। जिस समय मुनि काल धर्म को प्राप्त करें उसी समय अंगूठे आदि अंगुलियों को बांध लेना और श्रुत के मर्म को जानने वाला धीर वृषभ समर्थ साधु अंग छेदन तथा जागृत रहना आदि कार्य करें। और यदि कोई व्यंतर आदि देव उस शरीर में आश्रय करें और इससे मृतक उठे, तो धीर साधु शास्त्र विधि से उसे शांत करना। और यदि डेढ़ भोगवाले नक्षत्र में काल धर्म प्राप्त करे तो दर्भ (घास) के दो पुतले और यदि समभोग वाले नक्षत्र में काल धर्म प्राप्त करे तो एक पुतला, यदि आधे भोग वाले में काल करे तो नहीं करना। उसमें तीन उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छह नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त के डेढ़ भोग वाले हैं। शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र आधे भोग वाले हैं और शेष नक्षत्र समभोग वाले हैं। गाँव जिस दिशा में हो उस दिशा में गाँव की ओर मृतक का मस्तक रहे इस तरह उसे ले जाना चाहिए, और पीछे नहीं देखते उसे स्थंडिल परठने की भूमि की ओर ले जाना। इससे किसी समय में यक्षाविष्ट होकर यदि मृतक नाचे तो भी गाँव में नहीं जाना चाहिए। सूत्र, अर्थ और तदुभय का जानकार गीतार्थ एक साधु पानी और कृश तृण लेकर पहले स्थंडिल भूमि 407 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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