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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार- विजहना नामक नौवाँ द्वार एक ही समय में वह सिद्ध होता है। अर्थात् वह सात राज ऊँचे सिद्ध क्षेत्र में पहुँचता है। फिर साकार ज्ञान के उपयोग वाला उस बंधन मुक्त होने से तथा स्वभाव से ही जैसे एरंडी का फल बंधन मुक्त होते ही ऊँचा उछलता है, वैसे ऊँचा जाता है, फिर वहाँ चौदह राजलोक के ऊपर धर्मास्तिकाय के अभाव में कर्म मुक्त उसकी आगे ऊर्ध्व गति नहीं होती है और अधर्मास्तिकाय द्वारा उसकी वही सादि अनंत काल तक स्थिरता होती है। औदारिक, तेजस, कार्मण इन तीनों शरीर को यहाँ छोड़कर वहाँ जाकर स्वभाव में रहते सिद्ध होता है और घनीभूत जीव प्रदेश जितने स्थान में उतना चरम देह से तीसरे भाग में न्यून अवगाहना को प्राप्त करता है । 'इषत्प्राग्भार' नाम की सिद्धशिला से एक योजन ऊँचे लोकांत हैं उसमें नीचे उत्कृष्ट एक कोश का छट्ठा विभाग सिद्धों की अवगाहना के द्वारा व्याप्त हैं। तीन लोक के मस्तक में रहे वे सिद्धात्मा द्रव्य पर्यायों से युक्त जगत को तीन काल सहित संपूर्ण जानते हैं। और देखते हैं ।। ९७८० ।।
जैसे सूर्य एक साथ समविषय पदार्थों को प्रकाशमय करता है वैसे निर्वाण हुए जीव लोक को और अलोक को भी प्रकाश करते हैं। उनकी सर्व पीड़ा बाधाएँ नाश होती हैं, उस कारण से सभी जगत को जानते हैं तथा उनको उत्सुकता नहीं होने से वे परम सुखी रूप में अति प्रसिद्ध हैं। अति महान् श्रेष्ठ ऋद्धि को प्राप्त होते हुए भी मनुष्यों को इस लोक में वह सुख नहीं है कि जो उन सिद्धों को पीड़ा रहित और उपमा रहित सुख होता है। स्वर्ग
देवेन्द्र और मनुष्यों में चक्रवर्ती जो इन्द्रिय जन्य सुख का अनुभव करते हैं उससे अनंत गुणा और पीड़ा रहित सुख उन सिद्ध भगवंतों को होता है। सभी नरेन्द्र और देवेन्द्रों को तीन काल में जो श्रेष्ठ सुख है उसका मूल्य एक सिद्ध के एक समय के सुख जितना भी नहीं है। क्योंकि उन्हें विषयों से प्रयोजन नहीं है, क्षुधा आदि पीड़ाएँ नहीं हैं और विषयों के भोगने का रागादि कारण भी नहीं है। प्रयोजन समाप्त हुआ है, इससे सिद्ध को बोलना, चलना, चिंतन करना आदि चेष्टाओं का भी सद्भाव नहीं है। उन्हें उपमा रहित, माप रहित, अक्षय, निर्मल, उपद्रव बिना का, जरा रहित, रोग रहित, भय रहित, ध्रुव-स्थिर एकान्तिक, आत्यंतिक और अव्याबाध केवल सुख ही है। इस तरह केवली के योग्य पादपोपगमन नाम का अंतिम मरण का फल आगम की युक्ति अनुसार संक्षेप से कहा है । इस आराधना के फल को सुनकर बढ़ते संवेग के उत्साह वाले सर्व भव्यात्मा उस पादपोपगमन मरण प्राप्तकर मुक्ति सुख को प्राप्त करें ।
इस प्रकार इन्द्रिय रूपी पक्षी को पिंजरे तुल्य सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा मूल समाधि लाभ द्वार में फल प्राप्ति नाम का आठवाँ अंतर द्वार कहा है। प्रथम से यहाँ तक जीव के निमित्त धर्म की योग्यता आदि से लेकर फल प्राप्ति तक द्वार कहा है। अब जीव रहित क्षपक मुनि के मृतक शरीर के विषय में जो कुछ कर्त्तव्य का विस्तार करणीय है उसे श्री जिनागमकथनानुसार न्याय से साधुओं के अनुग्रह के लिए 'विजहना' नामक द्वार से कहा जाता है। यहाँ विजहना, परिवणा, परित्याग, फेंक देना आदि शब्द एक समान अर्थ वाले हैं।
विजहना नामक नौवाँ द्वार :
पूर्व में कहे अनुसार आराधना करते क्षपक मुनि जब आयुष्य पूर्ण करें तब निर्यामक साधुओं को उसके शरीर विषय में यह विजहना सम्यक् करना । अहो ! तूंने महाभाग क्षपक को इस तरह चिरकाल औषधादि उपचारों से सार संभाल ली, चिरकाल तक सेवा की, चिरकाल सहवास में रहा, साथ रहा, चिरकाल पढ़ाया, और बहुत समय तक समाधि द्वारा अनुगृहीत किया, ज्ञानादि गुणों द्वारा तूं हमको भाई समान, पुत्र समान, मित्र समान, प्रिय और शुद्ध प्रेम का परम पात्र था। परंतु तुझे निर्दय मृत्यु ने आज क्यों छीन लिया? हा ! हा! हम लूटे गये । हम
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