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________________ समाधि लाभ द्वार-फल प्रापि नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला निरोध होने से वह शैलेशी और निश्चल आत्म प्रदेश वाला होने से सर्वथा कर्म बंध रहित-अबंधक होता है, फिर शेष रहे कर्मों के अंशों को क्षय करने के लिए पाँच अक्षरों के उच्चारण काल में वह चौथा 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती' शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं। उस पाँच ह्रस्व अ-इ-उ-ऋ-M स्वरों के उच्चारण करते जितने समय में अंतिम ध्यान के बल से द्विचरिम समय में उदीरणा नहीं हुई उन सर्व प्रकृतियों को खत्म करते हैं। फिर अंतिम समय में वे तीर्थंकर हों तो बारह प्रकृति को और शेष सामान्य केवली ग्यारह प्रकृति को खपाते हैं, फिर ऋजुगति से अनंतर समय में ही अन्य क्षेत्र तथा अन्य काल को स्पर्श किये बिना ही जगत के चौदहवें राजलोक के शिखर पर पहुँच जाते हैं। वह इस प्रकार जघन्य मनोयोग वाला संज्ञी पर्याप्ता को यह पर्याप्त होने के, प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य और उसका जितना व्यापार हो, उससे असंख्य गुण हीन मनोद्रव्यों का प्रति समय में निरोध करता है, असंख्याता समय में वह सर्व मन योग का निरोध करता है। इस तरह सर्व जघन्य वचन योग वाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव को पर्याप्त होने के पहेले समय में जघन्य वचन योग के जो पर्याय अंश होता है उससे असंख्य गुणहीन अंशों का प्रति समय में निरोध करता है, असंख्यात समय में संपूर्ण वचन योग का निरोध करता है और फिर प्रथम समय में उत्पन्न हुए सूक्ष्म निगोद के जीव को जो सर्व जघन्य काययोग होता है, उससे असंख्यात गुणहीन काय योग का प्रत्येक समय में निरोध करता है। अवगाहन के तीसरे भाग को छोड़ते, असंख्यात समय में संपूर्ण काय योग का निरोध करते हैं, तब संपूर्ण योग का निरोध करनेवाले वे शैलेशीकरण को प्राप्त करते हैं। शैलेशी की व्याख्या इस प्रकार की है कि-शैलेश अर्थात् पर्वत का राजा मेरु पर्वत, के समान स्थिरता हो वह शैलेशी करण होता है। अथवा पूर्व में अशैलेश अर्थात् कंपन वाला होता है, उसे स्थिरता द्वारा शैलेश-मेरु तुल्य होता है। अथवा स्थिरता से वह ऋषि शैल समान है, अतः शैल+ऋषि शैलेशी होता है और उसी शैलेशी के लेश्या का लोप करने से अलेशी बनता है। अथवा शील अर्थात् समाधि वह निश्चय से सर्व संवर कहलाता है। शील+इश=शीलेश और शीलेश की जो अवस्था वह शब्द शास्त्र के नियम से शैलेशी होता है। शीघ्रता अथवा विलंब बिना जितने काल पाँच ह्रस्व स्वर बोले जाएँ उतने काल मात्र वह शैलेशी रहता है। काय योग निरोध के प्रारंभ से सर्व योग निरोध रूप शैलेशी करे तब तक वह तीसरा सूक्ष्म क्रिया-अनिवृत्ति ध्यान को तथा शैलेशी के काल में चौथा व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ध्यान को प्राप्त करते हैं। उसमें यदि पूर्व अपूर्वकरण गुण स्थानक में उस शैलेशीकरण से असंख्यात गुना गुण श्रेणि द्वारा जो कर्म दलिक की रचना निषेध किया था, उसे क्रमशः समय-समय पर खत्म करते शैलेशी काल में सर्व दलिक को खत्म कर, पुनः उसमें शैलेशी के द्विचरम समय में कुछ प्रकृतियों को संपूर्ण खत्म कर और चरम समय में कुछ संपूर्ण खपाते हैं। वह विभाग रूप में कहा है। मनुष्य गति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्ता और सौभाग्य, आदेय तथा यशनाम ये आठ नामकर्म, दो में से एक, वेदनीय, मनुष्यायु और उच्च गौत्र, तथा संभव-तीर्थंकर हों तो जिन नामकर्म अतिरिक्त नरानुपूर्वी ये तेरह अन्य ग्रंथों के आधार पर मतांतर से नरानुपूर्वी के बिना बारह और अंत समय में बहत्तर मतांतर से तिहत्तर को द्विचरम समय में केवली भगवंत सत्ता में से क्षय करते हैं। यहाँ पर जो औदारिकादि तीन शरीर को सर्व विप्पजहणाओं से त्याग करें ऐसा कहा है उन सर्व प्रकार के त्याग से छोड़े ऐसा जानना। पूर्व में जो संघातन के परिशाटन द्वारा दलिक बिखेरता था, वह नहीं, परंतु सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, अनंत सुख और सिद्धत्व, इनके बिना उसका भव्यत्व और सारे औदयिक भावों को एक साथ नाश करता है। और ऋजुगति को प्राप्त करते वह आत्मा, आत्मा की अचिंत्य शक्ति होने से बीच में अन्य समय एवं अन्य आकाश प्रदेशों को स्पर्श किये बिना ही 405 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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