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________________ समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्रीसंवेगरंगशाला स्वीकारकर सुखपूर्वक चार स्कंध द्वार वाली आराधना में विजय ध्वजा को प्राप्त किया है। उन महानुभावों ने इस लोक में क्या प्राप्त नहीं किया? अर्थात् उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया। और उद्यमशील होकर आदरपूर्वक जो आराधना करने वाले की सहायता करता है, वह भी प्रत्येक जन्म में श्रेष्ठ आराधना को प्राप्त करता है। जो आराधक मुनि की भक्ति पूर्वक सेवा करता है और नमस्कार करता है वह भी सद्गति के सुखस्वरूप आराधना के फल को प्राप्त करता है। इस प्रकार श्री गौतम स्वामी के कहने से राजर्षि महासेन मुनि की हर्षानंद से रोमरोम गाढ़ उछलने लगे फिर श्री गणधर भगवंत को तीन प्रदक्षिणा देकर पृथ्वी तल को मस्तक स्पर्श करते नमस्कार करके पुनरुक्ति दोष रहित अत्यंत महाअर्थ वाली भाषा से इस तरह स्तति करने लगे। श्री गौतम स्वामी की स्तुति :- हे मोहरूपी अंधकार से व्याप्त इस तीन जगत रूपी मंदिर को प्रकाशमय करने वाले प्रदीप! आप विजयी रहो। हे मोक्षनगर की ओर प्रस्थान करते भव्य जीव के साथी! आपकी जय हो। हे निर्मल केवल ज्ञानरूपी लोचन से समग्र पदार्थों के विस्तार के ज्ञाता। आपकी विजय हो। हे निरुपम अतिशायी रूप से सुरासुर सहित तीन लोक को जीतने वाले प्रभु! आपकी जय हो। हे शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से घन घाती कर्मों के गाढ़वन को जलाने वाले प्रभु आपकी जय हो। चंद्र और महेश्वर के हास्य समान उज्ज्वल अति आश्चर्यकारक चारित्र वाले हे प्रभु! आप विजयी रहो। हे निष्कारण वत्सल! हे सज्जन लोक में सर्व से प्रथम पंक्ति को प्राप्त करते प्रभु! आपकी विजय हो। हे साधुजन को इच्छित पूर्ण करने में अनन्य कल्पवृक्ष प्रभु! आपकी जय हो। हे चंद्रसम निर्मल यश के विस्तार वाले हे शरणागत के रक्षण में स्थिर लक्ष वाले! और हे राग रूपी शत्रु के घातक हे गणधर श्री गौतम प्रभु! आप विजयी हो! आप ही मेरे स्वामी, पिता हो, आप ही मेरी गति और मति हो, मित्र और बंधु भी आप ही हो आपसे अन्य मेरा हितस्वी कोई नहीं है। क्योंकि-इस आराधना विधि के उपदेशदाता आपने संसार रूपी कुएँ में गिरते हुए मुझे हाथ का सहारा देकर बाहर निकाला है। आपके वचनामृत रूपी जल की धारा से सिंचन किया हुआ हूँ। इस कारण से मैं धन्य हूँ, कृतपुण्य हूँ और मैंने इच्छित सारा प्राप्त कर लिया है। हे परम गुरु! प्राप्त होने में अत्यंत दुर्लभ होने पर भी तीन जगत की लक्ष्मी मिल सकती है, परंतु आपकी वाणी का श्रवण कभी नहीं मिलता। हे भवन बंधु! यदि आपकी अनुज्ञा मिले तो अब मैं संलेखना पूर्वक आराधना विधि को करना चाहता हूँ। फिर फैलती मनोहर उज्ज्वल दांत की कांति के समूह से दिशाओं को प्रकाश करते श्री गौतम स्वामी ने कहा कि-अति निर्मल बुद्धि के उत्कृष्ट से संसार के दुष्ट स्वरूप को जानने वाले, परलोक में एक स्थिर लक्ष्य वाले, सुख की अपेक्षा से अत्यंत मुक्त और सद्गुरु की सेवा से विशेषतया तत्त्व को प्राप्त करने वाले हे महामुनि महासेन! तुम्हारे जैसे को यह योग्य है इसलिए इस विषय में थोड़ा भी विलंब नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह शुभ अवसर बहुत विघ्नवाला होता है और पुनः पुनः धर्म सामग्री भी मिलनी दुर्लभ है और कल्याण की साधना सर्व प्रकार के विघ्नवाली होती है, और ऐसा होने से जिसने सर्व प्रयत्न से धर्म कार्यों में उद्यम किया उसी ने ही लोक में जय पताका प्राप्त की है। उसी ने ही संसार के भय को जलांजलि दी है और स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी को हस्त कमल में प्राप्त की है। अथवा तूंने क्या नहीं साधन किया? इसलिए साधुता का सुंदर आराधक तूं कृत पुण्य है कि तेरी चित्त प्रकृति सविशेष आराधना करने के लिए उत्साही हो रही है। हे महाभाग! यद्यपि तेरी सारी क्रिया अवश्यमेव आराधना रूप है फिर भी अब यह कही हुई उस विधि में दृढ़ प्रयत्न कर। यह सुनकर परम हर्ष से प्रकट हुए रोमांच वाले राजर्षि महासेन मुनि गणधर के चरणों में नमस्कारकर, मस्तक पर कर कमल लगाकर-हे भगवंत! अब से आपने जो आज्ञा की उसके अनुसार करूँगा। इस प्रकार 409 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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