SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार प्रतिज्ञा करके वहाँ से निकला। फिर पूर्वोक्त दुष्कर तपस्या को सविशेष करने से दुर्बल शरीर वाले बनें हुए भी वह पूर्व में विस्तारपूर्वक कही हुई विधि से सम्यग् रूप से द्रव्य भाव संलेखना को करके, त्याग करने योग्य भाव के पक्ष को छोडकर सर्व उपादेय वस्त के पक्ष में लीन बनें। स्वयं कछ काल निःसंगता से एकाकी विचरण कर मांस रुधिर आदि अपनी शरीर की धातुओं को अति घटाया, और शरीर की निर्बलता को देखकर विचार करने लगे कि आज दिन तक मैंने अपने धर्माचार्य कथित विस्तृत आराधना के अनुसार समस्त धर्म कार्यों में उद्यम किया है, भव्य जीवों को प्रयत्नपूर्वक मोक्ष मार्ग में जोड़ना, सूत्र, अर्थ के चिंतन से आत्मा को भी सम्यग् वासित किया और अन्य प्रवृत्ति छोड़कर शक्ति को छुपाये बिना इतने काल, बाल, ग्लान आदि साधु के कार्यों में प्रवृत्ति (वैयावच्च) की। अब आँखों का तेज क्षीण हो गया है, वचन बोलने में भी असमर्थ और शरीर कमजोर होने से चलने में भी अशक्त हो गया हूँ अतः मुझे सुकृत की आराधना बिना के इस निष्फल जीवन से क्या लाभ? क्योंकि मुख्यता से धर्म की प्राप्ति हो उस शुभ जीवन की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। अतः धर्माचार्य को पूछकर और निर्यामणा की विधि के जानकार स्थविरों को धर्म सहायक बनाकर पूर्व में कहे अनुसार विधिपूर्वक, जीव विराधना रहित प्रदेश में शिला तल को प्रमार्जनकर भक्त परिज्ञा-आहार त्याग द्वारा शरीर का त्याग करना चाहिए। ऐसा विचारकर वे महात्मा धीरे-धीरे चलते श्री गणधर भगवंत के पास जाकर उनको नमस्कारकर कहने लगे कि-हे भगवंत! मैंने जब तक हाड़ चमड़ी शेष रही तब तक यथाशक्ति छट्ट, अट्ठम आदि दुष्कर तप द्वारा आत्मा की संलेखना की। अब मैं पुण्य कार्यों में अल्प मात्र भी शक्तिमान नहीं हूँ, इसलिए हे भगवंत! अब आप की आज्ञानुसार गीतार्थ स्थविरों की निश्रा में एकांत प्रदेश में अनशन करने की इच्छा है, क्योंकि अब मेरी केवल इतनी अभिलाषा है। भगवान श्री गौतम स्वामी ने निर्मल केवल ज्ञान रूपी नेत्र द्वारा उसकी अनशन की साधना को भावि में निर्विघ्न जानकर कहा कि--हे महायश! ऐसा करो और शीघ्र निस्तार पारक संसार से पार होने वाले बनों।' इस प्रकार महासेन मुनि को आज्ञा दी और स्थविरों को इस प्रकार कहा कि-हे महानुभावों! यह अनशन करने में दृढ़ उद्यमशील हुआ है, इस आराधक असहायक को सहायता देने में तत्पर तुम सहायता करो। एकाग्र मन से समयोचित सर्व कार्यों को कर पास में रहकर आदर पूर्वक उसकी निर्यामण करो! फिर हर्ष से पूर्ण प्रकट हुए महान् रोमांच वाले वे सभी अपनी भक्ति से अत्यंत कृत्रार्थ मानते श्री इन्द्रभूति की आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाकर सम्यक् स्वीकार कर प्रस्तुत कार्य के लिए महासेन राजर्षि के पास आये, फिर निर्यामक से घिरे हुए वे महासेन मुनि जैसे भद्र जाति का हस्ति अति स्थिर उत्तम दांत वाले बड़े अन्य हाथियों से घिरा हुआ शोभता है, वैसे निर्यामक पक्ष से भद्रिक जातिवंत अति स्थिर और इन्द्रियों को वश करने वाले निर्यामकों से शोभित धीरे-धीरे श्री गौतम प्रभु के चरण कमलों को नमस्कारकर पूर्व में पडिलेहन की हुई बीज, त्रस जीवों से रहित शिला ऊपर बैठे और वहाँ पूर्व में कही विधि पूर्वक शेष कर्त्तव्य को करके महा पराक्रमी उन्होंने चार प्रकार के सर्व आहार का त्याग किया। स्थविर भी उनके आगे संवेगजनक प्रशममय महा अर्थ वाले शास्त्रों को सुनाने लगे। फिर अत्यंत स्वस्थ मन, वचन, काया के योग वाले, धर्म ध्यान के ध्याता, सुख दुःख अथवा जीवन मरणादि में समचित्त वाले, राधावेध के लिए सम्यक् तत्पर बनें मनुष्य के समान अत्यंत अप्रमत्त और आराधना करने में प्रयत्नपूर्वक स्थिर लक्ष्य वाले बनें उस महासेन मुनि की अत्यंत दृढ़ता को अवधिज्ञान से जानकर, अत्यंत प्रसन्न बनें सौधर्म सभा में रहे इन्द्र ने अपने देवों को कहा कि-हे देवों! अपनी स्थिरता से मेरु पर्वत को भी जीतने वाले समाधि में रहे और निश्चल चित्त वाले इस साधु को देखो देखो! मैं मानता हूँ कि प्रलय काल में प्रकट हुए पवन के अति आवेग से उछलते 410 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy