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________________ श्री संवेगरंगशाला सुकोशल मुनि की कथा स्थिर कर दिया, मुक्ति का एक लक्ष्य बना दिया, हाथी, घोड़ें, रथ और मनुष्यों के समूह को, स्त्रियों को, विविध भण्डार, पर्वत नगर और गाँवों सहित सारी पृथ्वी को त्रिविध-त्रिविध रूप से वोसिरा दिया। अठारह पाप स्थानकों का त्याग किया। सर्व समूह और सर्व द्रव्य, क्षेत्र आदि के राग का भी त्याग किया। उसके बाद धर्म ध्यान में तन्मय और आर्त्त-रौद्र- ध्यान का त्यागी बनकर वह बुद्धिमान राजा चिरकाल के दुष्ट आचरणों की निन्दा करके सर्व इन्द्रियों के विकारों को रोककर, अनशन विधि को स्वीकारकर, सभी प्राणि-मात्र से क्षमा याचना करते हुए, सुख दुःख आदि द्वन्द्व प्रति मध्यस्थ भाव रखने वाला भक्तिपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा कि-भाव शत्रुओं का विनाश करने वाले सर्वज्ञ श्री अरिहंत देवों को मेरा नमस्कार हो, कर्म के समूह से मुक्त सर्व सिद्धों को मेरा नमस्कार हो, नमस्कार हो! धर्म के पांच आचारों में रक्त आचार्य महाराज को मैं नमस्कार करता हूँ, सूत्र के प्रवर्तक श्री उपाध्याय भगवंत को नमन करता हूँ और क्षमादि गुणों से युक्त सर्व साधुओं को भावपूर्वक नमस्कार करता हूँ। इस तरह पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते उसने आयुष्य पूर्ण किया और शुभप्रणिधान के प्रभाव से वहाँ से सात सागरोपम के आयुष्य वाला तीसरे सनत्कुमार देवलोक में देदीप्यमान शरीर वाला देव हुआ। इस प्रकार मधुराजा का वर्णन संक्षेप से कहा, अब सुकोशल महामुनि का वर्णन करते हैं ।।६६८।। सुकोशल मुनि की कथा साकेत नामक महान् नगर में कीर्तिधर नामक राजा राज्य करता था। उसकी सहदेवी नाम की रानी और उसका सुकोशल नामक पुत्र था। अन्य किसी दिन वैराग्य प्राप्तकर राजा ने सुकोशल का राज्याभिषेक कर सद्गुरु के पास में संयम लिया, ज्ञान क्रिया रूप ग्रहण और आसेवन दोनों प्रकार की शिक्षा की स आराधना करते वह गाँव, नगर आदि में ममता रहित विचरने लगा। एक समय उन्होंने साकेतपुर में भिक्षार्थ प्रवेश किया और उसकी रानी सहदेवी ने उसे देखकर 'मेरे पुत्र को गलत समझाकर यह साधु न बना दे'। ऐसा चिंतनकर उसने कीर्तिधर महामुनि को सेवक द्वारा नगर से निकलवा दिया, इससे 'अरे रे! यह पापिनी अपने स्वामी का भी अपमान क्यों करवा रही है?' इस तरह अत्यन्त शोक से उसकी धावमाता गद्गद् स्वर से रोने लगी, उस समय सुकोशल ने पूछा-माताजी! आप क्यों रो रही हैं? मुझे बतलाइए। उसने कहा-हे पुत्र! यदि तुझे सुनने की इच्छा हो तो कहती हूँ-जिसकी कृपा से यह चतुरंग बल से शोभित राजलक्ष्मी तूंने प्राप्त की है वे प्रवर राजर्षि कीर्तिधर राजा चिरकाल के पश्चात् यहाँ आये हैं, उन्हें हे पुत्र! तुरन्त वैरी के समान इस तेरी माता ने अभी ही नगर से बाहर निकलवा दिया है। इस प्रकार का व्यवहार किसी हल्के कुल में भी नहीं दिखता है, जब तीन भवन में प्रशंसा पात्र तेरे कुल में यह एक आश्चर्य हुआ है। हे पुत्र! अपने मालिक का इस प्रकार पराभव देखकर अन्य कुछ भी करने में असमर्थ होने से मैं रोकर दुःख को दूर कर रही हूँ। उसे सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए सुकोशल राजा पिता मुनि को वन्दन करने के लिए उसी समय नगर से बाहर निकल गया. अन्यान्य जंगलों में स्थिर दृष्टि से देखते उसने एक वृक्ष के नीचे काउस्सग्ग ध्यान में कीर्तिधर मुनि को देखा, तब परम हर्ष आवेश से विकस्वर रोमांचित वाला वह सुकोशल अत्यन्त भक्तिपूर्वक पिता मुनि के चरणों में गिरा और कहने लगा किहे भगवंत! अपने प्रिय पुत्र को अग्नि से जलते घर में छोड़कर पिता का चले जाना क्या योग्य है? हे पिताजी! आप मुझे हमेशा जरा, मरण रूपी अग्नि की भयंकर ज्वालाओं के समूह से जलते हुए इस संसार में छोड़कर दीक्षित हुए? अभी भी हे तात! भयंकर संसार रूपी कुएँ के विवर में गिरे हुए मुझे दीक्षा रूपी हाथ का सहारा देकर बचाओ, इस तरह उसका अत्यन्त निश्चल और संसार प्रति परम वैराग्य भाव देखकर कीर्तिधर मुनिराज ने उसे दीक्षा दी। 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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