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________________ सुकोशल मुनि की कथा-विस्तृत आराधना का स्वरूप श्री संवेगरंगशाला सुकोशल को दीक्षित बने जानकर अति दुःखार्त बनी सहदेवी महल पर से गिरकर मर गयी और मोग्गिल नामक पर्वत में शेरनी रूप में उत्पन्न हुई, इधर वे मुनिवर्य तप में निरतिचार संयम में उद्यम करते और दुःसह महापरीषहों रूपी शत्रुओं के साथ युद्ध में विजय द्वारा जय पताका को प्राप्त करते अप्रतिबद्ध विहार से विचरते उसी ही श्रेष्ठ पर्वत में पहुँचे. वहाँ उन्होंने वर्षाकाल प्रारम्भ किया. इससे पर्वत की गफा के मध्य में स्वाध्याय ध्यान में दुर्बल शरीर वाले उन्होंने चातुर्मास रहकर चातुर्मास पूर्णकर शरत्काल में निकले, विहार में उन्हें आते हुए देखकर पूर्व के वैर से अति तीव्र क्रोध वाली बनी वह शेरनी सहसा उनके सामने दौड़ी, उसे आते देखकर महोत्सव वाले, अक्षुब्ध मन वाले मुनियों ने भी आनन्द से 'श्वापद का यह तीव्र उपसर्ग उपस्थित हुआ है' ऐसा मानकर सागार पच्चक्खाण करके अदीन और धीर मन वाले, उन्होंने दोनों हाथ लम्बेकर नाक के अग्रभाग में दृष्टि जोड़कर मेरु के समान अचल जब काउस्सग्ग करके खड़े रहे, तब शेरनी ने आकर सुकोशल मुनि को शीघ्र पृथ्वी पर गिरा दिया और उसका भक्षण करना आरम्भ किया तब उस उपसर्ग को सम्यग् रूप से सहन करते उस महात्मा ने इस प्रकार चिंतन किया कि-शारीरिक और मानसिक दुःखों से भरे हुए संसार में जीवों को उन दुःखों के साथ योग होना सुलभ है, अन्यथा इस संसार में पाँच सौ साधु सहित खंधकाचार्य घानी में पिलाकर अत्यन्त पीड़ा से क्यों मर गये? अथवा काउस्सग्ग में रहे और तीन दण्ड के त्यागी दण्ड साधु का शीर्ष अति रुष्ट बना यवन राजा बिना कारण से क्यों छेदन करे? इसलिए इस भव समुद्र में आपदाएँ अति सुलभ ही हैं, परन्तु सैंकड़ों जन्मों के दुःखों को नाश करने वाला जिन धर्म ही दुर्लभ है। चिन्तामणि के समान, कामधेनु और कल्पवृक्ष के समान यह दुर्लभ प्राप्ति वाला धर्म भी पुण्य के संयोग से महा मुश्किल से मुझे मिला है ।।७०० ।। इस प्रकार धर्म प्राप्ति होने से अनादि संसार में अतिचार रूप दोषों से रहित और सदाचरण रूप गणों से श्रेष्ठ मेरा यह जन्म ही सफल है। केवल एक ही दुःख रूप चिन्ता है कि जो मैं इस शेरनी के कर्म बन्धन में कारण रूप बना हूँ। अतः जिन-जिन मुनियों ने अनुत्तर मोक्ष को प्राप्त किया है उनको मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि वे अन्य जीवों के कर्म बन्धन के कारण नहीं बने हैं। मैं अपनी आत्मा का शोक नहीं करता हूँ परन्तु कर्म से परतन्त्र श्री जिन वचन से रहित मिथ्यामति वाली दुःख समुद्र में पड़ी हुई इस शेरनी का शोक करता हूँ। ऐसा चिंतन मनन करते उनका शरीर कर्ममल और उस जन्म का आयुष्य परस्पर स्पर्धा करते हों इस तरह तीनों एक साथ में ही सहसा क्षीण हो गये। इससे उत्तरोत्तर बढ़ते ध्यानरूपी अग्नि से सकल कर्मवन जल जाने से अंतकृत् केवली होकर महा सत्त्ववान् सुकोशल राजर्षि ने एक समय में सिद्धि गति प्राप्त की। अथवा उत्तम प्रणिधान में एक बद्धलक्ष्य वालों को क्या दुःसाध्य है? भयानक बीमारी या महा संकट के समय साधु और गृहस्थ संबंधी कर्म का नाश करने वाली इस संक्षेप वाली विशेष आराधना को कहा है। विस्तृत आराधना का स्वरूप : अति सुबद्ध सुन्दर नगर के समान विस्तृत आराधना के ये मूल चार द्वार हैं (१) परिकर्म विधि (२) परगण में संक्रमण (३) ममत्व का उच्छेद और (४) समाधि लाभ। ये चारों द्वार क्रमशः यथार्थ रूप में कहेंगे। इसलिए प्रस्तुत अर्थ आराधना के विस्तार का प्रस्ताव करने में ये चार मुख्य होने से वे मूल द्वार है और इन चार द्वारों में योग्यता, लिंग, शिक्षा आदि नाम वाले प्रतिद्वार हैं - 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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