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________________ श्री संवेगरंगशाला श्री मरुदेवा माता का दृष्टांत और उसके अनुक्रम से पन्द्रह, दस, नौ और नौ प्रतिद्वार हैं। उसका वर्णन फिर उस द्वार में विस्तृत विवरण के प्रसंग पर करेंगे, केवल ये द्वार की अर्थ-व्यवस्था (वर्णन पद्धति) इस तरह कही है। परिकर्म विधि द्वार में 'अहं द्वार आदि से त्याग द्वार' पर्यंत जो वर्णन करेंगे, उसमें कहीं-कहीं पर गृहस्थ, साधु दोनों संबन्धी, और कहीं पर दोनों का विभाग कर अलग-अलग रूप में कहेंगे, उसके बाद मरण विभक्ति द्वार से प्रायः साधु के योग्य ही कहेंगे, क्योंकि श्रावक भी उसको विरति की भावना जागृत होने से उत्कृष्ट श्रद्धा वाले अन्त में निरवद्य प्रवज्या ग्रहण करके काल कर सकता है, इसलिए उसे अब आप सुनो ।।७१६ ।। इस विषय में अब अधिक कहने से क्या प्रयोजन? अतिचार रूपी दोष से रहित निर्दोष आराधना को अंतकाल में अल्प पुण्य वाला प्राप्त नहीं कर सकता है। क्योंकि जैसे ज्ञान, दर्शन का सार शास्त्र में कहा हुआ उत्तम चारित्र है, और जैसे चारित्र का सार अनुत्तर मोक्ष कहा है जैसे मोक्ष का सार अव्याबाध सुख कहा है वैसे ही समग्र प्रवचन का भी सार आराधना कहा है, चिरकाल भी निरतिचार रूप में विचरणकर मृत्यु के समय में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना करने वाले अनन्त संसारी होते हुए देखे हैं। क्योंकि बहुत आशातनाकारी और ज्ञान चारित्र के विराधक का पुनः धर्म प्राप्ति में उत्कृष्ट अन्तर अर्ध पुद्गल परावर्तन असंख्यकाल चक्र तक कहा है, और मरने के अन्त में माया रहित आराधना करने वाली मरुदेवा आदि मिथ्यादृष्टि भी महात्मा सिद्ध हुए भी दिखते हैं। वह इस प्रकार : श्री मरुदेवा माता का दृष्टांत नाभि राजा के मरुदेवा नामक पत्नी थी, वह ऋषभदेव प्रभु ने दीक्षा लेने के शोक से संताप करती हुई हमेशा आंसू झरने के प्रवाह से मुख कमल को धोती हुई रो रही थी और कहती कि-मेरा पुत्र ऋषभ अकेला घूम रहा है, श्मशान, शून्यघर, अरण्य आदि भयंकर स्थानों में रहता है और अत्यन्त निर्धन के समान घर-घर पर भीख मांग रहा है और यह उसका पुत्र भरत घोड़ें, हाथी, रथ वगैरह उत्कृष्ट सम्पत्ति वाला तथा भय से नम्रता युक्त सामन्तों के समूह वाला राज्य भोग रहा है। हा! हा! हताश! हत विधाता! मेरे पुत्र को ऐसा दुःख देने से हे निघृण! तुझे कौन-सी कीर्ति या कौन से फल की प्राप्ति होने वाली हैं? इस तरह हमेशा विलाप करती और शोक से व्याकुल बनकर रोती उसकी आँखों में मोतिया आ गया। जब त्रिभवन के एक प्रभु श्री ऋषभदेव को विमल केवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट होने से देवों ने मणिमय सिंहासन से युक्त समवसरण की रचना की, तब केवल ज्ञान की उत्पत्ति को सुनकर मरुदेवी के साथ हाथी के ऊपर बैठकर प्रभु को वंदनार्थ के लिए आते भरत महाराजा जगद्गुरु का छत्रातिछत्र आदि ऐश्वर्य देखकर विस्मयपूर्वक कहने लगे कि-हे माताजी! सुर, असुरादि तीनों जगत से पूजित चरण कमल वाले आपके पुत्र को र जगत में आश्चर्यकारक उनका परम ऐश्वर्य देखो! आप आज तक जो मेरी ऋद्धि की आदर से प्रशंसा करते थें और मुझे उपालंभ देते थे परंतु मेरी ऋद्धि तुम्हारे पुत्र की ऋद्धि से एक करोड़वाँ भाग की भी गिनती में नहीं है। हे माताजी! देखो तीन छत्ररूपी चिह्नों से शोभता, बड़ी शाखाओं वाला, मनोहर अशोक वृक्ष है, और तीन भवन की शोभा विस्तारपूर्वक बताने वाला रम्य यह प्रभु का आसन है। हे माताजी! देखो! पंचवर्ण के रत्नों से रचित द्वार वाला, चांदी, सोना और मणि के तीन गढ़ से सुंदर तथा घुटने तक पुष्पों के समूह से भूषित समवसरण की यह भूमि है। और हे माताजी! एक क्षण के लिए ऊपर देखो! आते-जाते देवों के समूह से शोभित 1. दिवा मिच्छादिट्टी, अमाइणो लक्खणेण सिद्धा या आराहियमरणंता, मरुदेवाई महासत्ता 11७२२।। 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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