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समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार
श्री संवेगरंगशाला
त्याग द्वार हैं, ये पाँच निषेध द्वार हैं। तथा (६) सम्यक्त्व में स्थिरता, (७) श्री अरिहंतादि ६ के प्रति भक्ति भाव, (८) पंच परमेष्ठि नमस्कार में तत्परता, (९) सम्यग् ज्ञान का उपयोग, (१०) पाँच महाव्रतों की रक्षा, (११) क्षपक के चार शरण स्वीकार, (१२) दुष्कृत की गर्दा करना, (१३) सुकृत की अनुमोदना करना, (१४) बारह भावना से युक्त होना, (१५) शील का पालन करना, (१६) इन्द्रियों का दमन करना, (१७) तप में उद्यमशील, और (१८) निःशल्यता।
इस तरह अनुशास्ति द्वार में निषेध और विधान रूप अठारह अंतर द्वारों के यहाँ नाम मात्र कहे है। अब अपने-अपने क्रमानुसार आये हुए उन द्वारों को ही सिद्धांत से सिद्ध दृष्टांत युक्ति और परमार्थ से युक्त विस्तारपूर्वक कहता हूँ। इसमें अब प्रथम अठारह अंतर द्वार वाला अठारह पाप स्थानकों का द्वार मैं कहता हूँ।
अठारह पाप स्थान के नाम :- जीव को कर्मरज से मलिन करता है इस कारण से इसे पाप कहते हैं। इसके ये अठारह स्थानक अथवा विषय हैं
(१) प्राणिवध, (२) अलिक वचन, (३) अदत्त ग्रहण, (४) मैथुन सेवन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) प्रेम (राग), (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) अरति-रति, (१५) पैशुन्य, (१६) पर-परिवाद, (१७) माया मृषावचन, और (१८) मिथ्यादर्शन शल्य।
इन्हें अनुक्रम से विस्तारपूर्वक कहते हैं ।।५५८०।।
(१) प्राणिवध :- उच्छ्वास आदि प्राण जिसको होते है उसे जीव-प्राणी कहते हैं। उन प्राणों का वध करना अथवा वियोग करना वह प्राणिवध कहलाता है और वह नरक का मार्ग है। निर्दयता धर्म ध्यान रूपी कमल के वन का नाश करने वाली अचानक प्रचण्ड हिम की वृष्टि रूप अथवा अग्नि के बड़े चूल्हे के घिराव रूप हैं, अपकीर्ति रूपी लता के विस्तार के लिए पानी की बड़ी नीक है, प्रसन्न मन वचन वाले मनुष्यों के देश में शत्रु सैन्य का आगमन का श्रवण है तथा असहनता और अविरति रूप रति और प्रीति का कामदेव रूप पति है। महान् प्राणी रूपी पतंगिये के समूह का नाश करने वाला प्रज्ज्वलित दीपक का पात्र है, अति उत्कट पाप रूपी कीचड़ वाला समुद्र अति गहरा है। अत्यंत दुर्गम दुर्गति रूपी पर्वत की गुफा का बड़ा प्रवेश द्वार है, संसार रूपी भट्टी में तपे हुए अनेक प्राणी को लोहे के हथौड़े से मारने के लिए एरण है। क्षमा आदि गुण रूप अनाज के कण को दलने के लिए मजबूत चक्की है तथा नरक भूमि रूपी तालाब में अथवा नरक रूपी गुफा में उतरने के लिए सरल सीढ़ी है। प्राणिवध में आसक्त जीव इस जन्म में ही बार-बार वध, बंधन, जेल, धन का नाश, पीड़ा और मरण को प्राप्त करता है। जीव दया के बिना दीक्षा, देव पूजा, दान, ध्यान, तप, विनय आदि सर्व क्रिया अनुष्ठान निरर्थक है। यदि गौहत्या, ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या की निवृत्ति से परम धर्म होता है, तो सर्व जीवों की रक्षा से वह धर्म उससे भी उत्कृष्ट कैसे न हो? होता ही है! इस संसार चक्र में परिभ्रमण करते जीव ने सर्व जीवों के साथ सभी प्रकार के संबंध किये हैं. इसलिए जीवों को मारने वाला तत्त्व से अपने सर्व सगे संबंधियों को मारता है। जो एक भी जीव को मारता है वह करोड़ों जन्म तक अनेक बार मरता हुआ अनेक प्रकार से मरता है। चार गति में रहे जीव को जितने दुःख उत्पन्न होते हैं वे सभी हिंसा के फल का कारण है, इसे सम्यक् प्रकार से समझो। जीव वध करनेवाला वह स्वयं अपने आपका वध करता है और जीव दया करने वाला अपने आप पर दया करता है इसलिए आत्मार्थी जीव को सर्व जीवों की सर्वथा हिंसा का त्याग करना चाहिए।
विविध योनियों में रहे मरण के दुःख से पीड़ित जीवों को देखकर बुद्धिमान उसको नहीं मारें, सभी जीवों को अपने समान देखें। कांटा लग जाने मात्र से जीव को तीव्र वेदना होती है तो तीर, भाला आदि शस्त्रों से मारे
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