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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार जाते हैं उन जीवों को कितनी, कैसी पीड़ा होती होगी? हाथ में शस्त्र रखने वाले हिंसक को आये देखकर भी विषाद और भय से व्याकुल बनकर जीव कांपने लगता है, निश्चय से लोक में मरण के समान भय नहीं है। 'मर जा' इतना कहने पर भी जीव को यदि अतीव दुःख होता है, तो तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार से मरते हुए क्या दुःख नहीं होता होगा? जो जीव जहाँ जिस शरीर आदि में जन्म लेता है वहीं राग करता है, इसलिए जहाँ जीव रहता है उसकी हमेशा दया करनी चाहिए। अभयदान समान अन्य कोई बड़ा दान सारे जगत में भी नहीं है। इसलिए जो उसे देता है, वही सच्चा दानवीर-दातार है ।।५६००।। इस जगत में मरते जीव को यदि करोड़ सोना महोर का दान दे और दूसरी ओर जीवन दान देने में आये तो जीवन को चाहनेवाला जीव करोड़ सोना महोर स्वीकार नहीं करेगा। जैसे राजा की मृत्यु के समय राजा समग्र राज्य का दान देता है वैसे जो अमूल्य जीवन को देता है वह इस जीवलोक में अक्षयदान को देता है। वह धार्मिक है, विनीत है, उत्तम विद्वान है, चतुर है, पवित्र और विवेकी है कि अन्य जीवों में सुख-दुःख को अपनी उपमा दी है अर्थात् सुख-दुःख अपने आप में माना है। अपना मरण आते देखकर जो महादुःख होता है, उसके अनुमान से सर्व जीवों को भी देखना चाहिए। जो स्वयं को अनिष्ट हो वह दूसरों के प्रति सर्वथा नहीं करे, क्योंकि इस जन्म में जैसा किया जाता है वैसा ही फल मृत्यु के बाद मिलता है। समग्र जगत में जीवों को प्राणों से अधिक कोई भी प्रिय नहीं है, इसलिए अपने दृष्टांत से उनके प्रति दया ही करनी चाहिए। जो जीव जिस प्रकार, जिस निमित्त, जिस तरह से पाप को करता है, वह उसका फल भी उसी क्रम से वैसा ही अनेक बार प्राप्त करता है। जैसे इस जन्म में दातार अथवा लूटेरा उस प्रकार के ही फल को प्राप्त करता है। वैसे ही सुख दुःख का देने वाला भी पुण्य पाप को प्राप्त करता है। जो दुष्ट मन, वचन और काया रूपी शस्त्रों से जीवों की हिंसा करता है, वह उन्हीं शस्त्रों द्वारा दस गुणा से लेकर अनंत गुणा तक मारा जाता है। जो हिंसक भयंकर संसार को खत्म करने में समर्थ है और दया तत्त्व को नहीं समझता है, उसके ऊपर गर्जना करती भयंकर पाप रूपी वज्राग्नि गिरती है। इसलिए हे बंधु! सत्य कहता हूँ कि-हिंसा सर्वथा त्याग करने योग्य है, जो हिंसा को छोड़ता है वह दुर्गति को भी छोड़ देता है, ऐसा समझो! जैसे लोहे का गोला पानी में गिरता है तो आखिर नीचे स्थान पर जाता है, वैसे हिंसा से प्रकट हुए पाप के भार से भारी बना जीव नीचे नरक में गिरता है। और जो इस लोक में जीवों के प्रति विशुद्ध जीव दया को सम्यग् रूप से पालन करता है वह स्वर्ग में मंगल गीत और वाजिंत्रों के शब्द श्रवण का सुख, अप्सराओं के समूह से भरा हुआ और रत्न के प्रकाश वाला श्रेष्ठ विमान चिंतन मात्र से प्राप्त करता है, सकल विषय सुख वाला देव बनता है और वहाँ से च्यवकर भी असाधारण संपत्ति के विस्तार वाले, उज्ज्वल यश वाले, उत्तम कुल में ही जन्म लेता है। दया के प्रभाव से वह जगत् के सभी जीवों को सुख देने वाला, दीर्घ आयुषी, निरोगी, नित्य शोक-संताप रहित और कायक्लेश से रहित मनुष्य होता है, वह हीन अंग वाला, पंगु, बड़े पेट वाला, कुबड़ा, ठिगना, लावण्य रहित और रूप रहित नहीं होता है। तथा दया धर्म को करने से मनुष्य सुंदर रूप वाला, सौभाग्यशाली, महाधनिक, गुणों से महान् और असाधारण बल, पराक्रम और गुण रत्नों से सुशोभित शरीर वाला, माता-पिता के प्रति प्रेम वाला, अनुरागी स्त्री, पुत्र, मित्रों वाला और कुल वृद्धि को करने वाला होता है। जिनको प्रिय मनुष्यों के साथ वियोग, अप्रिय का समागम, भय, बिमारी, मन की अप्रसन्नता, हानि, पदार्थ का नाश नहीं होता है। इस प्रकार पुण्यानुबंधी पुण्य के प्रभाव से उनको बाह्य, अभ्यंतर सर्व संयोग सदा अनुकूल ही होते हैं, दयालु मनुष्य संपूर्ण जैन धर्म की सामग्री को प्राप्तकर और उसकी विधिपूर्वक आराधनाकर जीव दया के पारमार्थिक फल को प्राप्त करता है। इस तरह जिसके प्रभाव से जीवात्मा श्रेष्ठ कल्याण की परंपरा 240 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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