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समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार-सासु-बहू और पुत्री की कथा
श्री संवेगरंगशाला
को सम्यग् रूप से प्राप्त करता है और पूज्य बनता है वह जीवदया विजयी रहे। अथवा लौकिक शास्त्र में भी इस जीव हिंसा का पूर्व कहे अनुसार त्याग रूप ही कहा है, तो लोकोत्तर शास्त्र में पुनः क्या कहना? प्राणिवध में आसक्त और उसकी विरति वाले इस जन्म में दोष और लाभ को प्राप्त होते हैं। इस हिंसा अहिंसा विषय में भी सासू, बहू और पुत्री का दृष्टांत देते हैं, वह इस प्रकार है :- ।।५६२५।।
सास-बहू और पुत्री की कथा बहुत मनुष्यों वाले और विशाल धन वाले तथा शत्रु सैन्य, चोर या मरकी का भय कभी देखा ही नहीं था, उस शंखपुर नामक नगर में बल नाम का राजा था। उस राजा के प्रीति का पात्र और सभी धन वालों का माननीय सर्वत्र प्रसिद्ध सागरदत्त नाम का नगर सेठ था। उस सेठ की संपदा नाम की स्त्री थी, उसको मुनिचंद्र नाम का पुत्र, बंधुमती नाम की पुत्री और थावर नामक छोटा बाल नौकर था। उस नगर के नजदीक में वटप्रद नामक अपने गोकल में जाकर सेठ अपनी गायों के समूह की सार संभाल करता था। प्रत्येक महीने में से घी, दूध से भरी हुई बैलगाड़ी लाता था और स्वजन, मित्र तथा दीन दरिद्र मनुष्यों को देता था। बंधुमती भी श्री जिनेश्वर देव के धर्म को सुनकर हिंसादि, पाप स्थानकों की त्याग वाली प्रशम गुण वाली श्राविका बनी थी। फिर जीवन इन्द्र धनुष्य समान चंचल होने से क्रमशः सागर दत्त सेठ की किसी दिन मृत्यु हो गयी और नागरिक और स्वजनों ने उस नगर सेठ के स्थान पर मुनिचंद्र को स्थापन किया। वह स्व-पर के सारे कार्यों में पूर्व पद्धति अनुसार करने लगा। थावर नौकर भी पूर्व अनुसार उसका अति मान करता था और मित्र के समान, पुत्र के समान तथा स्वजन के समान घर का कार्य करता था।
केवल कामाग्नि से पीड़ित, उससे व्याकुल दुःशील संपदा स्त्री स्वभाव से और विवेक शून्यता से थावर को देखकर चिंतन करने लगी कि-एकांत में रहकर मैं किस उपाय से इसके साथ किसी भी रोक-टोक के बिना विघ्न रहित विषयसुख का कब भोग करूँगी? अथवा किस तरह इस मुनिचंद्र को मारकर इस थावर को धन सुवर्ण से भरे हुए अपने घर का मालिक भी बनाऊँगी? इस तरह विचार करती वह स्नान, भोजनादि द्वारा थावर की सविशेष सेवा करने लगी। अहो! पापी स्त्रियों की कैसी दुष्टता? उसके आशय को नहीं जानते थावर इस तरह उसका व्यवहार देखकर ऐसा मानने लगा कि इस तरह मुझे पुत्र तुल्य मान कर अपना मातृत्व बता रही है। एक समय लज्जा को छोड़कर और अपने कुल की मर्यादा को दूर रखकर उसने एकांत में सर्व आदरपूर्वक उसे आत्मा सौंप दी, अंतःकरण की सत्य बात कही कि-हे भद्र! मुनिचंद्र को मार दो, इस घर में मालिक के समान विश्वस्त तं मेरे साथ भोग विलास कर। उसने पूछा कि इस मनिचंद्र को किस तरह मारूँ? उसने कहा कि मैं तुझे और उसको गोकुल देखने के लिए जब भेजूंगी तब मार्ग में तूं तलवार से उसे मार देना, उसने वह स्वीकार किया। निर्लज्ज को क्या अकरणीय है? यह बात बंधुमती ने सुन ली और स्नेहपूर्वक उसी समय घर में आते भाई से कह दी। उसको मौन करवाकर मुनिचंद्र घर में आया और माता भी कपट से रोने लगी। उसने पूछा कि-हे माताजी! आप क्यों रो रही हो? माता ने कहा कि-पुत्र! अपने कार्य को कमजोर देखकर मैं रो रही हूँ। तेरा पिता जब जीता था तब अवश्य मास पूर्ण होते देखकर गोकुल में से घी, दूध लाकर देते थे। हे पुत्र! तूं तो अब अत्यंत प्रमादवश हो गया है, इसलिए गोकुल की अल्प भी सारसंभाल नहीं करता, कहो अब किसको कहूँ? पुत्र ने कहा कि-माता! रो मत, मैं स्वयं प्रभात में थावर के साथ गोकुल जाऊँगा, आप शोक को छोड़ दो। ऐसा सुनकर प्रसन्न हुई वह मौन धारण कर रही, फिर दूसरे दिन घोड़े के ऊपर बैठकर वह थावर के साथ चला। चलते हुए मार्ग में थावर मन में विचार करने लगा कि-यदि किसी तरह मुनिचंद्र आगे चले तो तलवार से मैं उसे जल्दी मार दूंगा।
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