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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार-सासु-बहू और पुत्री की कथा मुनिचंद्र भी बहन के कथन का विचार करते अप्रमत्त बनकर मार्ग में उसके साथ में ही चलने लगा। फिर विषम मार्ग आया तब घोड़े को चाबुक का प्रहार किया और घोड़ा आगे चलने लगा, जब मुनिचंद्र शंकापूर्वक जाने लगा उस समय पीछे रहे वह उसको मारने के लिए तलवार म्यान में से खींचने लगा। मुनिचंद्र ने उसी तरह वैसी ही परछायी देखी, इससे उसने घोड़े को तेजी से दौड़ाया और तलवार का निशाना निष्फल किया।
___ दोनों गोकुल में पहुँचे और गोकुल के रक्षकों ने उनका सत्कार सेवा की, फिर अन्य-अन्य बातें करते सूर्यास्त तक वहीं रहे। थावर उसे मारने के लिए उपायों का विचार करता है. निश्चय किया कि रात में इसे अवश्य मार दूंगा। फिर रात्री में जब पलंग सोने के लिए घर में रखा तब मुनिचंद्र ने कहा कि-आज में बहुत समय के बाद यहाँ आया हूँ, इसलिए इस पलंग को गायों के बाड़े में रखो कि जिससे वहाँ रहे हुए सर्व गाय, भैंस के प्रत्येक समूह को देख सकूँ। नौकरों ने पलंग को उसी तरह रख दिया। फिर मुनिचंद्र विचार करता है कि-जब मैं थावर नौकर की संपूर्ण प्रवृत्ति आज देखू। उसको अकेला सोया हुआ देखकर 'अब मैं रूकावट बिना सुखपूर्वक मार दूंगा।' ऐसा मानकर थावर भी मन में प्रसन्न हुआ। फिर जब सब लोग सो गये तब मुनिचंद्र तीक्ष्ण तलवार लेकर अपने पलंग पर लकड़ी और ऊपर वस्त्र ढककर देखने वाले को पुरुष दिखे, इस तरह रखकर थावर का दुष्ट आचरण देखने के लिए अत्यंत सावधान मन वाला, मौन धारण करके एकांत में छुप गया। थोड़े समय के बाद विश्वास होते थावर ने आकर जब उस पलंग पर प्रहार किया, उसी समय मुनिचंद्र ने थावर पर तलवार से प्रहार किया, इससे वह मर गया। उसकी बात छुपाने के लिए सारे पशुओं के समूह को बाड़े से बाहर लाकर मुनिचंद्र बोलने लगा कि-अरे भाइयों! दौड़ो, दौड़ो! चोरों ने गायों का हरण किया है और थावर को मार दिया। इससे सर्वत्र पुरुष दौड़े। वे गायों को वापिस ले आये और ऐसा मानने लगे कि-चोर भाग गये हैं। इसके बाद थावर का सारा मृत कार्य किया।
इधर माता चिंतातुर हो रही थी 'वहाँ क्या हुआ होगा?' और उसके आने वाले मार्ग को देख रही थी, इतने में मुनिचंद्र अकेले शीघ्र घर पर पहुँचा। तलवार को घर की कील पर लगाकर अपने आसन पर बैठा और उसकी पत्नी उसके पैर धोने लगी। शोकातुर माता ने पूछा कि-हे पुत्र! थावर कहाँ है? उसने कहा कि-माताजी! मंद गति से पीछे आ रहा है। इससे क्षोभ होते उसने जब तलवार सामने देखी तब खून की गंध से चींटियाँ आती देखीं और स्थिर दृष्टि से देखते उसने तलवार को भी खून से युक्त देखी, इससे प्रबल क्रोधाग्नि से जलते शरीर वाली उस पापिनी ने उस तलवार को म्यान में से बाहर निकालकर अदृश्य-गुप्त रूप में रहकर उसने अन्य किसी कार्य से एकचित्त बने पुत्र का मस्तक शीघ्र काट दिया। अपने पति को मरते देखकर उसकी पत्नी का अत्यंत क्रोध चढ़ गया और बंधुमती के देखते-देखते ही मूसल से सासू को मार दिया और जीव हिंसा से विरागी चित्त वाली वह बंधुमती हृदय में महा संताप को धारण करती घर के एक कोने में बैठी रही। नगर के लोग वहाँ आये और उस वृत्तांत को जानकर उन्होंने बंधुमती से पूछा कि-माता को मारने वाली इस बहु को क्यों नहीं मारा? तब उसने कहा कि- 'मुझे किसी भी जीव को नहीं मारने का नियम है।' इससे लोगों ने उसकी प्रशंसा की और बहु को बहुत धिक्कारा। इसके बाद घर की संपत्ति राजा ले गया, पुत्रवधू को कैदखाने में बंद कर दिया और बंधुमती सत्कार करने योग्य बनी। इस तरह प्राणीवध अनर्थका कारण है। प्राणिवध नाम का यह प्रथम पाप स्थानक कहा है। अब मृषावाद नामक दूसरा पाप स्थानक कहते हैं।
(२) मृषावाद द्वार :- मृषा वचन वह अविश्वास रूप वृक्षों के समूह का अति भयंकर कंद है, और मनुष्यों के विश्वास रूप पर्वत के शिखर के ऊपर वज्राग्नि का गिरना है। निंदा रूपी वेश्या को आभूषण का दान
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