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समाधि लाअ द्वार-यव साधु का प्रबंध-पंच महाव्रत रक्षण वामक दसवाँ द्वार
श्रीसंवेगरंगशाला अर्थात्-इधर गई, उधर गई, खोज करने पर भी नहीं मिली, मैं इसे जानता हूँ कि-गिल्ली खड्डे में गिरी है।
इस श्लोक को भी सुनकर मुनि ने कुतूहल से अच्छी तरह याद कर लिया, फिर वह मुनि उज्जैनी में पहुंचे और वहाँ कुम्हार के घर रहे। वहाँ पर भी वह कुम्हार इधर-उधर भागते भयभीत चूहे को देखकर इस तरह का श्लोक बोला :सुकुमालया, भद्दलया, रत्ति हिंडणसीलया । दीहपिट्ठस्स बीहेहि, नत्थि ते ममओ भयं ।।७८७० ।।
अर्थात्-सुकुमार, भद्रक रात्री को घूमने के स्वभाव वाले, हे चूहे! तूं सर्प से चाहे डर। परंतु मेरे से तुझे भय नहीं है।
इस श्लोक को भी राजर्षि यव मुनि ने याद कर लिया और इन तीनों श्लोक का विचार करते वह धर्मकृत्य में तत्पर रहने लगा। केवल कुछ पूर्व वैर को धारण करने वाला दीर्घपृष्ट मंत्री ने उस स्थान पर गुप्त रूप में विविध प्रकार के शस्त्रों को छुपाकर राजा को कहा कि-साधु जीवन से थका हुआ आपका पिता राज्य लेने के लिए यहाँ आये हैं, यदि मेरे ऊपर विश्वास न हो तो उनके स्थान को देखो। उसके बाद विविध प्रकार के शस्त्र छुपाये हुए उन्हें दिखाये और राजा ने उन शस्त्रों को उसी तरह देखा। उसके बाद राज्य के अपहरण से डरा हुआ राजा लोकापवाद से बचने के लिए रात्री के समय दीर्घपृष्ट मंत्री के साथ काली कांति की श्रेणि से विकराल तलवार को लेकर कोई नहीं जाने इस तरह साधु को मारने के लिए कुम्हार के घर गया। उस समय मुनि ने किसी कारण वह प्रथम श्लोक कहा। इससे राजा ने विचार किया कि-निश्चय ही अतिशय युक्त इस मुनि ने मुझे जान लिया है। फिर मुनि ने दूसरा श्लोक कहा, तब पुनः उसे सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ कि-अहो! बहन का वृत्तांत भी इसने किस तरह जाना? तब मनि ने तीसरा श्लोक का उच्चारण किया. इस श्लोक को सनने से मंत्री के प्रति रोष बढ़ गया और राजा विचार करने लगा कि राज्य के त्यागी मेरे पिता पुनः राज्य लेने की कैसे इच्छा करेंगे? केवल यह पापी मंत्री मेरा नाश करने के लिए इस तरह प्रयत्न करता है। इससे इस दुष्ट को ही मार दूं। ऐसा विचारकर उसके मस्तक का छेदनकर राजा ने साधु को अपना सारा वृत्तांत निवेदन किया।
यह सुनकर श्रुत पढ़ने में उद्यमशील बनें और वे मुनि विचार करने लगे कि-मनुष्य को किसी प्रकार का भी अध्ययन करना चाहिए। हे आत्मन्! तूंने यदि असंबंध वाले भिन्न-भिन्न श्लोक द्वारा भी अपनी आत्मा का रक्षण किया है। इस कारण से ही पूर्व में मुझे गुरुदेव पढ़ने के लिए समझाते थे परंतु मैंने अज्ञानता के कारण उस समय थोड़ा भी अध्ययन नहीं किया। यदि मूढ़ लोगों का कहा हुआ पढ़ा हुआ ज्ञान इस प्रकार फलदायक बनता है तो श्री जिनेश्वर भगवंत कथित ज्ञान को पढ़ने से वह महाफलदायक कैसे नहीं बनें? ऐसा समझकर वह गुरु के पास गया और दुर्विनय की क्षमा याचनाकर प्रयत्नपूर्वक श्रुत ज्ञान पढ़ने लगा। इस प्रकार यव मुनि की प्राण
और संयम की रक्षा हई, तथा गर्दभ राजा ने पिता को नहीं मारने से कीर्ति और सदगति को प्राप्त किया। इस तरह सामान्य श्रुत के भी प्रभाव को जानकर हे क्षपक मुनि! तूं त्रिलोक के नाथ श्री जिनेश्वर परमात्मा के कथित श्रुत ज्ञान में सर्व प्रकार से आदरमान कर!
इस प्रकार सम्यग् ज्ञानोपयोग नाम का नौवाँ अंतर द्वार कहा। अब पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार कहते हैं ।।७८८८।। दसवाँ पंच महाव्रत रक्षण द्वार :सम्यग् ज्ञान उपयोग का श्रेष्ठ फल व्रत रक्षा है और निर्वाण नगर की ओर ले जाने के लिए मार्ग में रथ
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