SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-सज्यग्ज्ञानोपयोग नानक नौवाँ द्वार-यर साधु का प्रबंध ज्ञान का अच्छी तरह उपयोग करे तो हृदय रूपी पिशाच को वश करता है। जैसे विधिपूर्वक मंत्र का प्रयोग करने से काला नाग शांत होता है वैसे अच्छी तरह उपयोगपूर्वक ज्ञान द्वारा हृदय रूपी काला नाग उपशांत होता है। मदोन्मत्त जंगली हाथी को भी जैसे रस्सी से बाँध सकते हैं वैसे यहाँ पर ज्ञान रूपी रस्सी द्वारा मन रूपी हाथी को बाँध सकते हैं। जैसे बंदर रस्सी के बंधन बिना क्षण भर भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता, वैसे ज्ञान बिना मन एक क्षण भी मध्यस्थ-समभाव वाला स्थिर नहीं होता। इसलिए उस अति चपल मनरूपी बंदर को श्री जिन उपदेश द्वारा सूत्र से (श्रुतज्ञान से) बाँधकर शुभध्यान में क्रीड़ा करानी चाहिए। इससे राधावेध करने वाले को आठ चक्रों में उपयोग लगाने के समान क्षपक मुनि को भी सदा ज्ञानोपयोग विशेषतया कहा है। विशुद्ध लेश्या वाले जिसके हृदय में ज्ञान रूपी प्रदीप प्रकाश करता है उसे श्री जिन कथित मोक्ष मार्ग में चारित्र धन लूटने का भय नहीं होता है। ज्ञान प्रकाश बिना जो मोक्ष मार्ग में चलने की इच्छा करता है, वह बिचारा जन्मांध भयंकर अटवी में जाने की इच्छा करता है, उसके समान जानना। यदि खंडित-भिन्न-भिन्न पद वाले श्लोकों ने भी यत्र नामक साधु को मरण से बचाया, तो श्री जिन कथित सूत्र जीव का संसार समुद्र से रक्षक क्यों नहीं हो सकता है? ।।७८५१ ।। अर्थात् इससे अवश्यमेव संसार समुद्र से पार हो सकता है, उसकी कथा इस प्रकार है : यव साधु का प्रबंध उज्जैन नगर में अनिल महाराजा का पुत्र यव नाम का पुत्र था, उसका गर्दभ नामक पुत्र परम स्नेह पात्र था। वह युवराज था और संपूर्ण राज्य भार का चिंतन करने वाला एवं सर्व कार्यों में विश्वासपात्र दीर्घदृषि (दीर्घपृष्ठ) नाम का मंत्री था। और अत्यंत रूप से शोभित नवयौवन से खिले हुए सुंदर अंगवाली अडोल्लिका नाम की यवराज की पुत्री थी, जो गर्दभ युवराज की बहन थी। एक समय उसे देखकर युवराज काम से पीड़ित हुआ और उसकी प्राप्ति नहीं होने से प्रतिदिन दुर्बल होने लगा। एक दिन मंत्री ने पूछा कि-तुम दुर्बल क्यों होते जा रहे हो? अत्यंत आग्रहपूर्वक पूछने पर उसने एकांत में कारण बतलाया। तब मंत्री ने कहा कि-हे कुमार! कोई नहीं जान सके, इस प्रकार तूं उसे भोयरें में छुपाकर विषय सुख का भोग कर! संताप क्या नहीं करता है? ऐसा करने से लोग भी जानेंगे कि-निश्चय ही किसी ने इसका हरण किया है। मूढ़ कुमार ने वह स्वीकार किया और उसी तरह उसने किया। यह बात जानकर यवराज को गाढ़ निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न हुआ और पुत्र को राज्य पर स्थापन कर सद्गुरु के पास दीक्षा अंगीकार की। परंतु बार-बार कहने पर भी वह यव राजर्षि पढ़ने में विशेष उद्यम नहीं करते थे और पुत्र के राग से बार-बार उज्जैनी में आते थे। एक समय उज्जैन की ओर आते उसने जौ के क्षेत्र की रक्षा में उद्यमी क्षेत्र के मालिक ने अति गुप्त रूप में इधर-उधर छुपते गधे को बड़े आवाज से स्पष्ट अर्थवाले रटे हुए श्लोक को बोलते हुए इस प्रकार सुना : आधावसि पधावसि, ममं चेव निरिक्खसि। लक्खितो ते मए भावो, जवं पत्थेसि गद्दहा ।। अर्थात्-सामने आता है, पीछे भागता है और मुझे जो देखता है, इसलिए हे गधे! मैं तेरे भाव को जानता हूँ कि-तूं जौं (जव) को चाहता है। फिर कुतूहल से उस श्लोक को याद करके वह साधु आगे चलने लगा, वहाँ एक स्थान पर खेलते लड़कों ने गिल्ली फैकी, वह एक खड्डे में कहीं गिर पड़ी, और प्रयत्नपूर्वक लड़के ने सर्वत्र खोज करने पर भी गिल्ली जब नहीं मिली तब उसे खड्डे में देखकर एक लड़के ने इस प्रकार कहा : इओ गया तीओ गया, मग्गिज्जंती न दीसइ । अहमेयं वियाणामि, बिले पड़िया अडोल्लिया ।। 328 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy