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समाधि लाभ द्वार-सम्यग्ज्ञानोपयोग नामक नौवाँ द्वार
श्री संवेगरंगशाला करोड़ वर्ष तक नारक जीव जिस कर्म को खत्म करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्ति से गुप्त ज्ञानी पुरुष एक श्वास मात्र में खत्म कर देते हैं। ज्ञान से तीन जगत में रहे चराचर सर्व भावों को जानने वाले हो सकते हैं, इसलिए बुद्धिमान को प्रयत्नपूर्वक ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। ज्ञान को पढ़ें, ज्ञान को गुणें अर्थात् ज्ञान का चिंतन करें, ज्ञान से कार्य करें, इस तरह ज्ञान में तन्मय रहने वाला ज्ञानी संसार समुद्र से पार होता है। यदि निश्चय जीव की परम विशुद्धि को जानने की अभिलाषा है तो मनुष्य को अति दुर्लभ, बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त करने के लिए निश्चय ही ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। श्रुत ज्ञान को सर्व बल से, सर्व प्रयत्न से पढ़ना चाहिए और तप तो बल के अनुसार यथाशक्ति करना चाहिए। क्योंकि-सूत्र विरुद्ध तप करने से गुण कारक नहीं होता है। जब मरण नजदीक आता है तब अत्यंत समर्थ चित्त वाला भी बारह प्रकार के श्रुत स्कंध (द्वादशांगी) का सर्व से अनुचिंतन नहीं कर सकता है, इसलिए श्री जिनेश्वर के सिद्धांत रूप एक पद में संयोग (अभेद) को करता है, वह पुरुष उस अध्यात्म योग से अर्थात् आत्म रमणता से मोह जाल का छेदन करता है। जो कोई मोक्ष साधक व्यापार में लगा रहता है उस कारण से उसका ज्ञान स्थायी बना रहता है, क्योंकि उस ज्ञान से वह वीतरागता को प्राप्त करता है अर्थात जितना ज्ञान का अभ्यास-उद्यम करता है उतना ही ज्ञान आत्मा का बनता है और उस एक पद से मुक्ति होती है ।।७८२९।।
जो श्रुतज्ञान के लिए अल्प आहार पानी लेता है (अर्थात् ऊणोदरी करता है) उसको तपस्वी जानना, श्रुतज्ञान रहित जीव तप करता है वह बुखार से पीड़ित भूख को सहन करता है। अर्थात् ज्ञानी अल्प भोजन करने वाला तपस्वी कहलाता है और उस अल्प भोजन से उसे तृप्ति होती है, जब अज्ञानी का महातप भी भूखे रहने के समान कष्टकारी बनता है, ज्ञान के प्रभाव से त्याग करने योग्य का त्याग होता है और करने योग्य किया जाता है। ज्ञानी कर्त्तव्य को करना और अकार्य को छोड़ना जानता है। ज्ञान सहित चारित्र निश्चय सैंकड़ों गुणों को प्राप्त कराने वाला होता है। श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा है कि ज्ञान से रहित चारित्र नहीं है। जो ज्ञान है. वह मोक्ष साधना में मुख्य हेतु है, जो ज्ञान का फल है वह शासन का सार है और जो शासन का सार है वही परमार्थ है, ऐसा जानना। इस परमार्थ रूप तत्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव के बंध और मोक्ष को जानता है और बंध मोक्ष को जानकर अनेक भव संचित कर्मों का क्षय करता है। अन्यदर्शनीय अर्थात् मिथ्यात्वी को ज्ञान नहीं होता है, अज्ञानी को चारित्र नहीं है और अगुणी को मोक्ष नहीं है, इस तरह अज्ञानी को मोक्ष नहीं है। सर्व विषय में बारबार जानने योग्य उस बहुश्रुत का कल्याण हो कि श्री जिनेश्वर देव सिद्ध गति प्राप्त करने पर भी वे ज्ञान से जगत में प्रकाश करते हैं। इस जगत में मनुष्य चंद्र के समान बहुश्रुत के मुख का जो दर्शन करता है, इससे अति श्रेष्ठ, अथवा आश्चर्यकारी या सुंदरतर और क्या है? चंद्र में से किरण निकलती है वैसे बहुश्रुत के मुख में से श्री जिनवचन निकलते हैं, इसे सुनकर मनुष्य संसार अटवी से पार हो जाते हैं।
जो संपूर्ण चौदह पूर्वी, अवधि ज्ञानी और केवल ज्ञानी है, उन लोकोत्तम पुरुषों का ही ज्ञान निश्चय ज्ञान है। अति मूढ़ अनेक लोगों में भी एक ही जो श्रुत-शीलयुक्त हो वह श्रेष्ठ है, इसलिए प्रवचन-(संघ) में श्रुतशील रहित का सन्मान न करें। इस कारण से प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त रूप श्रुत में प्रयत्न करना योग्य है। क्योंकि इसके द्वारा स्व और पर को भी दुःख समुद्र में से पार उतारते हैं। ज्ञानोपयोग से रहित पुरुष अपने चित्त को वश करने के लिए शक्तिमान नहीं होता। उन्मत्त हाथी को जैसे अंकुश वश करता है, वैसे उन्मत्त चित्त को वश करने में ज्ञान अंकुशभूत है। जैसे अच्छी तरह से प्रयोग की हुई विद्या पिशाच को पुरुषाधीन करती है, वैसे 1. दढमूढम (प)हाणम्मि वि, वरमेगो वि सुयसीलसंपन्नो । मा हु सुयसीलविगलं काहिसि माणं पवयणम्मि ।।७८४०।।
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