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________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला विद्वता का व्याख्यान करना कि जिससे परलोक में उद्यत धीर पुरुषों ने तेरे ऊपर आरोपित किया हुआ इस गणधर (आचार्य) पद को तूं निस्तार प्राप्त कर सफल करना। क्योंकि जन्म, जरा, मरण से भरे हुए विशाल संसार रूपी अटवी में परिभ्रमण करने से थके हुए, परम पद रूप कल्पवृक्ष से शुभ फल की संपत्ति को चाहते इस भव्य प्राणियों को श्री जिन कथित धर्मशास्त्र के उपदेश तुल्य तीनों जगत् में भी दूसरा सुंदर उपकार नहीं है। और इस तरह श्री जिन कथित आगम का जो व्याख्यान करना वह परमार्थ मोक्ष के संशय रूप अंधकार को सूर्य रूप है। संवेग और प्रशम का जनक है, दुराग्रह रूपी ग्रह को निग्रह करने में मुख्य समर्थ है, स्वपर उपकार करने वाला होने से महान है, प्रशस्त श्रीतीर्थंकर नामकर्म का बंध करने वाला है, इस तरह महान् गुण का जनक है। इस कारण से हे सुंदर! परिश्रम को अवकाश दिये बिना पर के उपकार करने में एक समान भाव वाला तूं रमणीय जैन धर्म का सम्यग् उपदेश देना। और हे धीर पुरुष! तुझे प्रतिलेखनादि दस भेद वाली मुनि के दसधाचक्रवाल क्रिया में, सामाचारी में, क्षमा, मार्दव आदि दस प्रकार के यति धर्म में तथा सत्तरह विध संयम में और सकल शभ फलदायक अद्वारह हजार शीलांग रथ में, इससे अधिक क्या कहें? अन्य भी अपने पद के उचित कार्यों में नित्य सर्व प्रकार से अप्रमाद करना, क्योंकि गुरु यदि उद्यमी हो तो शिष्य भी सम्यग् उद्यमशील बनते हैं। तथा प्रशान्त चित्त द्वारा तुझे सदा सर्व प्राणियों के प्रति मैत्री करना, गुणीजनों को सम्मान देना, विनीत वचनों से प्रशंसा आदि से प्रीति करना, दीन, अनाथ, अंध, बहेरें आदि दुःखी जीवों के प्रति करुणा करना और निर्गुणी, गुण के निंदक, पापासक्त जीवों की उपेक्षा करना। तथा हे सुंदर! दर्शन, ज्ञान और चारित्र के गुण के प्रकर्ष के लिए विहार करना, मुनि के आचार की सर्व प्रकार से वद्धि करना। तथा जैसे मल में छोटी भी श्रेष्ठ नदी बहती हई समद्र के नजदीक चौडाई में बढ़ जाती है वैसे पर्याय के साथ तूं भी शील गुण में वृद्धि करना। हे सुंदर! तूं विहार आदि मुनिचर्या को बिलाव के रुदन समान प्रथम उग्र और फिर मंद मत करना, अन्यथा अपना और गच्छ का भी नाश करेगा। सुखशीलता में गृद्ध जो मूढ़ शीतल विहारी बनता है उसे सय में गद्ध जो मढ शीतल विहारी बनता है उसे संयम धन से रहित केवल वेशधारी जानना। राज्य. देश. नगर. गाँव. घर और कुल का त्यागकर प्रव्रज्या स्वीकारकर पुनः जो वैसी ही ममता करता है वह संयम धन से रहित केवल वेशधारी है। जो क्षेत्र राजा बिना का हो अथवा जहाँ राजा दुष्ट हो, जहाँ जीवों को प्रव्रज्या की प्राप्ति न हो अथवा संयम पालन न हो और संयम का घात होता हो तो वह क्षेत्र त्याग करने योग्य है। स्व-पर दोनों पक्ष में अवर्णवाद तथा विरोध को, असमाधिकारक वाणी को और अपने लिए विष तुल्य तथा पर के लिए अग्नि समान कषायों को छोड़ देना, यदि जलते हुए अपने घर को प्रयत्नपूर्वक ठण्डा करने की इच्छा न करें तो उससे दूसरे के घर की अग्नि को शांत करने की आशा कैसे कर सकते हैं? ।।४३५०।। सिद्धांत के सारभूत ज्ञान में, दर्शन में और चारित्र में, इन तीनों में जो अपने आपको तथा गच्छ को स्थिर करता है वह गणधर कहलाता है। हे वत्स! चारित्र की शद्धि के लिए उदगम. उत्पाद आदि दोषों से रहित अशन आदि पिंड उपधि को और वसती को ग्रहण करना/जो आचार में वर्तता है वही आगम में मर्यादावान आचार्य कहा है और ऊपर कहे आचार से जो रहित रहता है वह मर्यादा की अवश्य विराधना करता है। सर्व कार्यों में गुह्य तत्त्व को गुप्त और सम्यक् समदर्शी बनना, बाल और वृद्धों से युक्त समग्र गच्छ का नेत्र के समान सम्यग् रक्षण करना। जैसे ठीक मध्य में पकड़ा हुआ सोने का काँटा (तराजू) वजन को समभाव में धारण करता है अर्थात् एक पलड़े में सोना और दूसरे पलड़े में लोहा हो तो भी वह समभाव से धारण करता है अथवा जैसे समान गुण वाले दोनों पुत्र की माता समान रूप से सार संभाल 1. १. क्षमा, २. मार्दवता, ३. सरलता, ४. निर्लोभता, ५. तप, ६. संयम, ७. सत्य, ८. शौच, ६. आकिंचन, १०. ब्रह्मचर्य। - 185 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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