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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार शिष्य समुदाय की सविशेष क्षमापना करने से शुभ फल वाली बनती है, और क्षमापना करने वाले को इस जन्म में निःशल्यता, विनय का प्रकटीकरण, सम्यग् दर्शनादि गुणों की प्राप्ति, कर्म की लघुता, एकत्व भावना और रागरूपी बंधन का त्याग, इन गुणों की प्राप्ति होती है। इस तरह गुणरूपी रत्नों के लिए रोहणाचल पर्वत की भूमि समान और मरण के सामने युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत श्री संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला पर गण संक्रमण नामक दूसरा द्वार का क्षमापना नामक दूसरा अंतर द्वार कहा ।।४३१२ ।। __ अब तीसरा अनुशास्ति द्वार कहते हैं। तीसरा अनुशास्ति द्वार : अब शास्त्र विधि अनुसार मुनियों को क्षमापना करने पर भी जिसके बिना सम्यक् समाधि को प्राप्त न कर सके उस अनुशासित को अल्पमात्र कुछ कहते हैं। क्षमापना करने के बाद एकाग्रता से यथाविधि सर्व धर्म व्यापारों में प्रतिदिन उद्यम वाले, बढ़ते विशुद्ध उत्साह वाले, शास्त्र रहस्यों के जानकार, साधु के योग्य समस्त आचारों को स्वयं अखण्ड आचरण करते और शेष मुनियों को भी उसी तरह बतलाने वाले, अपने पद पर स्थापित नूतन आचार्य को एवं समग्र गच्छ को विशुद्ध संयम में रक्त देखकर पूर्व में कहे अनुसार उनकी अनुमोदना करें और अनुपकारी भी दूसरों को अनुग्रह करने में लीन चित्त वाले, महासत्त्वशाली और संवेग से भरे हुए हृदय वाले अति प्रसन्न मन वाले वे सूरि उचित समय पर शिक्षा दे उस शिक्षा के विशेषण बताते हैं-बड़े गुण की समूह की वृद्धि और पुष्टि द्वारा उसमें से कुबुद्धि रूप मैल धो गया हो। पंडित के मन को संतोष देने वाले प्रशम रस से बहती, अति स्नेह से युक्त, संदेह बिना की, गंभीर अर्थ युक्त, संसार प्रति वैराग्य प्रकट करने वाली, पाप रहित, मोह, अज्ञान रहित, कथनीय विषय को ग्रहण करने वाली, दुराग्रह की नाशक, मनरूपी अश्व को धर्म की चाबुक समान, मधुरता से क्षीर, मध की महिमा को भी जीतने वाली, अति मधुर और सुननेवाले के अस्थि-मज्जा को भी रंग दे ऐसी हित शिक्षा नये आचार्य को और गच्छ को दे उस शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार है : हे देवानुप्रिय! तुम जगत में धन्य हो, कि जो इस जगत में अति दुर्लभ आर्य देश में मनुष्य जीवन प्राप्त किया है। और स्नेही जन, स्वजन, नौकर आदि मनुष्यों से भरे हुए, उत्तम कुल में जन्म, प्रशस्त जाति तथा सुंदर रूप, सुंदर बल, आरोग्यता, और लम्बा आयुष्य, विज्ञान, सद्धर्म में बुद्धि, सम्यक्त्व, और अखण्ड निरतिचार शील को तुमने प्राप्त किया है। ऐसा पुण्य समूह निष्पुण्यक को नहीं मिल सकता है। इस तरह सर्व की सामान्य रूप में प्रशंसा करके उसके बाद सर्व प्रथम आचार्य को शिक्षा दे, जैसे कि-हे सत्पुरुष! तूं संसार समुद्र में तारने वाली उत्तम धर्मरूपी नाव का कर्णधार है, मोक्ष मार्ग में सार्थवाह है एवं अज्ञान से अंधे जीवों के नेत्र समान है। अशरण भव्य जीवों का शरण है और अनाथों का नाथ है, इसलिए हे सत्पुरुष! तुझे गच्छ के महान् भार में जोड़ा है। हे धीर! सर्वोत्तम तीर्थंकर नाम कर्म फल का जनक यह सर्वोत्तम आचार्य (सूरि) पद को, अक्षय सुख रूप को प्राप्त करने के लिए छत्तीस गुणरूपी धर्म रथ की धुरा को धारण करने में धीर, वृषभ समान, और पुरुषों में सिंह सदृश अनेक गणधरादि ने वहन किया है, जिससे निर्मल बुद्धि तूं भी इसे दृढ़ रूप से धारण करना। क्योंकि धन्य पुरुषों को ही यह पद दिया जाता है। धन्य पुरुष इसका पार प्राप्त कर सकते हैं, और इसका पार पाकर वे दुःखों का पार-अन्त को प्राप्त करते हैं। इससे भी श्रेष्ठ अन्य पद समग्र जगत में भी नहीं है, क्योंकि काल दोष से श्री जिनेश्वरों का व्युच्छेद होने से वर्तमान काल में शासन का प्रकाश-प्रभावना करने वाला यह पद है। इससे किसी ऐहिक आशा बिना प्रतिदिन श्री जिनागम के अनुसार विविध प्रकार के शिष्य समूह को योग्यता अनुसार 184 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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