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परगण संक्रमण द्वार-क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार-आचार्य नयशील सूरि की कथा श्री संवेगरंगशाला सुनने की इच्छा वाले, सैंकड़ों शिष्यों के संशयों को नाश करने वाले महाज्ञानी और महान् उपदेशक एवं बुद्धि से स्वयं बृहस्पति के समान नयशील नामक आचार्य थे। केवल सुखशीलता के कारण क्रिया में वे ऐसे उद्यमी नहीं थें। उनका एक शिष्य सम्यग् ज्ञानी और चारित्र से भी युक्त था। इससे शास्त्रार्थ में विचक्षण लोग उपयुक्त मन वाले होकर 'तहत्ति' बोलते थें, उसके पास श्री जिनागम को सुनते थें और यह मुनि पवित्र चारित्र वाला है' ऐसा अतिमान देते थें। इस तरह काल व्यतीत होते एक समय उस आचार्य ने विचार किया कि - ये भोले लोग मुझे छोड़कर इसकी सेवा क्यों करते हैं? अथवा स्वच्छन्दाचारी ये लोग चाहे कुछ भी करें, किन्तु मैंने इस तरह बहुत श्रुत बनाया है, इस तरह दीक्षित बनाया है, इस तरह पालन भी किया है तथा महान् गुणवान बनाया है, फिर भी यह तुच्छ शिष्य मेरी अवगणना करके इस तरह पर्षदा में भेद का वर्तन क्यों करता है? 'राजा जीवंत हो तो उसके छत्र का भंग नहीं किया जाता है।' इस लोग प्रवाह को भी मैं मानता हूँ कि इस अनार्य ने सुना नहीं है। फिर भी इसको मैं यदि अभी धर्मकथा करते रोकूँगा तो महामुग्ध लोग मुझे ईर्ष्या वाला समझेंगे। इसलिए चाहे वह कुछ भी करे, इस प्रकार के जीवों की उपेक्षा करनी चाहिए, वही योग्य है, अन्य कुछ भी करना वह निष्फल और उसके भक्त लोक में विरुद्ध हैं। इस तरह संक्लेश युक्त बनकर उसके प्रति प्रद्वेष करने लगें, और उस आचार्य ने अंतकाल में भी उसके साथ क्षमापना किये बिना ही आयुष्य पूर्ण किया। फिर संक्लेश दोष से उसी वन में वह क्रूर आत्मा, संज्ञी मन वाला, तमाल वृक्ष समान अति काला श्याम सर्प हुआ। फिर किसी तरह जहाँ हाँ घूमता हुआ जिस स्थान पर साधु स्वाध्याय - ध्यान करते थे उस भूमि में आकर रहा। उस समय स्वाध्याय करने की इच्छा से वह शिष्य चला, तब अपशकुन होने से स्थविरों ने उसे रोका। एक क्षण रुककर जब वह फिर चला, तब भी पुनः वैसा ही अपशकुन हुआ, उस समय स्थविरों ने विचार किया कि - इस विषय में कुछ भी कारण होना चाहिए, अतः साथ में हमें भी जाना चाहिए। ऐसा मानकर उसके साथ ही स्थविर मुनि भी स्वाध्याय भूमि पर गये ।
फिर स्थविर के मध्य में बैठे उस शिष्य को देखकर पूर्व जन्म की कठोर ईर्ष्या के कारण उस सर्प को भयंकर क्रोध चढ़ा। तब प्रचण्ड फणा चढ़ाकर लाल आँखों द्वारा आकाश को भी लाल करते और अति चौड़े मुख वाला वह सर्प उस शिष्य की ओर दौड़ा। अन्य मुनियों को छोड़कर उस शिष्य की ओर अति वेग से जाते हुए उस सर्प को स्थविरों ने महामुसीबत से उसी समय रोका और उन्होंने विचार किया कि - जो ऐसा वैर धारण करता है वह निश्चय ही पूर्व भव का किसी की साधुता का भंजक और साधु का प्रत्यनिक होगा ।। ४३००।। उसके पश्चात् किसी समय पर वहाँ केवली भगवंत पधारें और स्थविरों ने विनयपूर्वक उनसे यह वृत्तान्त पूछा। इससे केवली भगवान ने पूर्व जन्म की बात कही, उस नयशील सूरि का उसके प्रति प्रद्वेष वाला सारा वृत्तान्त मूल से ही उन्होंने कहा । इस तरह सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे बुद्धिमान मुनि बोले- अहो! प्रद्वेष का दुष्ट परिणाम भयंकर है, क्योंकि ऐसे श्रुतज्ञान रूपी गुण की खान, बुद्धिमान और कर्त्तव्य जानकार भी महानुभाव आचार्य श्री द्वेष के कारण भयंकर सर्प बनें हैं। फिर पूछा कि - हे भगवंत ! अब उसे वैर का उपशम किस तरह हो सकता है? केवली भगवंत ने कहा कि - उसके पास जाकर पूर्वभव के वैर का स्वरूप उसे कहो और बार-बार क्षमापना करो, ऐसा करने से जाति स्मरण ज्ञान को प्राप्त कर उसे बोध होगा और इससे धर्म भावना प्रकट होगी, वह मत्सर का त्याग करके अनशन स्वीकार करेगा और फिर भी उस काल के उचित सद्धर्म की करणी की आराधना करेगा, इससे स्थविरों ने सर्प के पास जाकर उसी तरह क्षमापनादि सर्व किया और वह सर्प अनशन आदि क्रिया करके मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरह वैर की परंपरा को उपशम करने के लिए अनशन के समय में
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