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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार-आचार्य नयशील सूरि की कथा हुए भी सतत् बड़े-बड़े आँसुओं से भी गीली आँखों वाले गुरु से कहे कि - हे स्वामिन्! सर्व प्रकार से स्वयं कष्ट सहनकर भी यदि आपने सदा हमको ही चारित्र द्वारा पालन पोषण किया उसका उपकार करते हुए भी आपको मैं खमाता हूँ। ऐसा यह वचन क्यों कहते हैं? उसके स्थान पर 'आपने सद्गुणों में स्थापन किये उसकी अनुमोदना करता हूँ।' ऐसा कहना चाहिए। आप अप्राप्त गुणों को प्राप्त कराने वाले, प्राप्त किये गुणों की वृद्धि कराने वाले, कल्याण रूपी लता को उत्पन्न कराने वाले, एकान्त हित करने वाले वत्सल, मुक्तिपुरी में ले जाने वाले एक श्रेष्ठ सार्थवाह, निष्कारण एक प्रिय बंधु, संयम में सहायक, सकल जगत के जीवों के रक्षक, संसार समुद्र से पार उतारने वाले कर्णधार और सर्व प्राणि - समूह के सच्चे माता-पिता होने से जो अति चतुर भव्य प्राणियों के मातापिता का त्यागकर, आश्रय करने योग्य महासत्त्व वाले महात्मा भय से पीड़ित को भय मुक्त करने वाले और हित में तत्पर, हे भगवंत! आप उपयोग के अभाव में, प्रमाद से भी लोक में किसी का भी किसी तरह अनुचित चिंतन क्या कर सकते हो ? द्रव्य, क्षेत्र और काल से नित्य सर्व प्राणियों का एकान्त प्रिय करने वाले आपको भी क्या खमाने योग्य हो सकता है? निश्चय 'इस तरह कहने से गुण होगा' ऐसा मानकर आपको जो कुछ कठोरतापूर्वक आदि भी कहा, वह भी उत्तम वैद्य के कड़वे औषध के समान परिणाम से हमारे लिये हितकर होता है। इसलिए हमने ही आपका जो कोई भी अनुचित किया हो, करवाया हो और अनुमोदन किया हो उसे आप के प्रति खमाने योग्य है। पुनः हे भगवंत ! वह भी हमने राग से, द्वेष से, मोह से या अनाभोग से, मन, वचन और कायाद्वारा जो अनुचित किया हो, उसमें राग से अपनी बड़ाई करने से, द्वेष से आपके प्रति द्वेष करने से, मोह से, अज्ञान द्वारा और अनाभोग से, उपयोग बिना जो अनुचित किया हो तो वह आपके प्रति खमाने योग्य है। और आपने सम्यग् अनुग्रह बुद्धि से हमारा हित करने पर भी हमने मन से कुछ भी विपरीत कल्पना की हो, वचन से बीच में बोला हो या अप्रिय वचन बोला हो, पीछे निंदा, चुगलखोरी तथा आपकी जाति, कुल, बल, ज्ञान आदि से जो नीचता बतलायी हो, काया से आपके हाथ, पैर, उपधि आदि का यदि कोई अनुचित स्पर्श आदि किया हो, उन सब की हम त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना करते हैं। तथा हे भगवंत! अशन, पान आदि तथा सूत्र, अर्थ और तदुभय वस्त्र, पात्र दण्ड आदि के तथा सारणा, वारणा, चोदना और प्रति - चोदना आदि की रुचि वाले आपने प्रेमपूर्वक दिया है, फिर भी हमने किसी तरह अविनय से स्वीकार किया हो, उसकी भी क्षमा याचना करते हैं, और किसी द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में, या भाव में, कहीं पर भी किसी प्रकार की कभी भी जो आशातना की हो, उसकी भी निश्चय त्रिविध - त्रिविध क्षमा याचना करते हैं। अब इस विषय में अधिक क्या कहें? इस तरह से भक्ति समूह युक्त शरीर वाले, वे शिष्य दो हाथ सम्यग् भाल-तल पर जोड़कर, गुणों से महान्, धर्माचार्य, धर्मोपदेशक और धर्म के वृषभ समान अपने गुरु महाराज को बार-बार किये हुए अपने अपराध की क्षमा याचना करें, और भी कहें कि - संयम के भार को धारण करने वाले उज्ज्वल गुणों के एक आधार हे पूज्य गुरुदेव ! दीक्षा दिन से आज तक हितोपदेश देने वाले आप की आज्ञा की अज्ञान तथा प्रमाद दोष के आधीन पड़े हमने जो कोई विराधना की हो, उन सब को भी मन, वचन, काया से क्षमा याचना करते हैं। इस तरह गुरु से यथायोग्य खामणा करने वाले शिष्यादि आनंद के आँसू बरसाते पृथ्वी तक मस्तक नमाकर यथायोग्य क्षमा याचना करें। इस तरह क्षमापना करने से आत्मा की शुद्धि होती है और दूसरे जन्म में थोड़ा भी वैर का कारण नहीं रहता है। अन्यथा क्षमापना नहीं करने से नयशील सूरि के समान ज्ञान का अभ्यास और परोपदेशादि धर्म का व्यापार भी परभव में निष्फल होता है ।।४२८० ।। वह इस तरह है : आचार्य नयशील सूरि की कथा एक बड़े समुदाय में विशाल श्रुतज्ञान से जानने योग्य ज्ञेय के जानकार, दूर से अन्य गच्छ में से आकर 182 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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