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________________ परिवन विधि द्वार-क्षानणा नामक दूसरा अंतर द्वार श्री संवेगरंगशाला विचार किये बिना ही समय के अनुरूप कर्त्तव्य में मूढ़ बनें उन्होंने अल्पमात्र संलेखनाकर भक्त परिज्ञा अनशन को स्वीकार किया। फिर गुरु अनशन में रहने से जब सारणा-वारणादि का संभव नहीं रहा तब जंगल के हाथियों के समान निरंकुश बने तथा गुरु को शिष्यों के प्रति उपेक्षा वाले देखकर, गुरु से निरपेक्ष बने हुए शिष्य भी उनकी सेवा आदि कार्यों में मंद आदर वाले हए और आचार्य भी उनको इस तरह देखकर हृदय में संताप करते अनशन को पूर्ण किये बिना ही मरकर असुर देवों में उत्पन्न हुए। शिष्य समुदाय भी जैसे नायक बिना के नागरिक शत्रु के सुभट समूह से पराभव प्राप्त करते हैं वैसे अति क्रूर प्रमाद शत्रु के सुभटों के समूह से पराभूत हो गया और गुरु के अभाव में साधु के कर्त्तव्य में शिथिल बन गया तथा मंत्र-तंत्र कौतुक आदि में प्रवृत्ति करते अनेक अनर्थों का भागीदार बना ।।४२३६।। इस कारण से आचार्य को मध्यम गुण वाले को भी आचार्य पद पर स्थापनकर उसे गच्छ की अनुज्ञा देकर अनशन का प्रयत्न करना चाहिए। अन्यथा प्रवचन की निंदा, धर्म का नाश, मोक्ष मार्ग का उच्छेद, क्लेशकर्म बंध और धर्म से विपरीत परिणाम आदि दोष लगते हैं। इस तरह कुगति रूपी अंधकार का नाश करने में सूर्य के प्रकाश तुल्य और मरण के सामने विजय पताका की प्राप्ति कराने में सफल कारण रूप संवेगरंगशाला रूपी आराधना के दस अंतरद्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार का दिशा नामक प्रथम अंतर द्वार कहा है। अब इस तरह अपने पद पर शिष्य को स्थापनकर उसे गण-समुदाय की अनुज्ञा करने वाले, एकान्त निर्जरा की अपेक्षा वाले भी आचार्य को जिसके अभाव में अति महान कल्याण रूपी लता वृद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता. उस दुर्गति का नाश करने वाला क्षमापना द्वार कहते हैं ।।४२४२।। क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार : उसके बाद प्रशान्त चित्तवाले वे आचार्य भगवंत, बाल, वृद्ध सहित अपने सर्व समुदाय को तथा तत्काल स्थापन किये नये आचार्य को बुलाकर मधुर वाणी से इस प्रकार कहे कि-'भो महानुभावों! साथ में रहने वालों को निश्चय सूक्ष्म या बादर कुछ भी अप्रीति होती है।' इसलिए कदापि अशन, पान, वस्त्र, पात्र तथा पीठ या अन्य भी जो कोई धर्म का उपकार करने वाला धर्मोपकरण मुझे मिला हुआ हो, विद्यमान होने पर भी और कल्प्य होने पर भी मैंने नहीं दिया हो अथवा दूसरे देने वाले को किसी कारण से रोका हो। अथवा पूछने पर भी यदि अक्षर, पद, गाथा, अध्ययन आदि सूत्र का अध्ययन न करवाया हो, अथवा अच्छी तरह अर्थ या विस्तार से नहीं समझाया हो, अथवा ऋद्धि, रस और शाता गारव के वश होकर किसी कारण से, कुछ भी कठोर भाषा से, चिरकाल बार-बार प्रेरणा या तर्जना की हो। विनय से अति नम्र और गाढ़ राग के बंधन से दृढ़, बंधन से युक्त भी तुमको रागादि के वश होकर मैंने यदि किसी विषम दृष्टि से अविनीतादि रूप में देखा हो या मान्य किया हो, और सद्गुणों की प्राप्ति में भी उस समय यदि तुम्हारी उत्साह वृद्धि न की हो, उसे हे मुनि भगवंतों! शल्य और कषाय रहित होकर मैं तुम्हें खमाता हूँ। तथा हे देवानुप्रिय! प्रिय हितकर को भी अप्रिय मानकर यदि इतने समय तक अस्थान में कारण बिना भी तुमको दुःखी किया हो तो भी खमाता हूँ। क्या किसी के द्वारा रात-दिन-सतत् किसी का भी एकान्त प्रिय कोई कर सकता है? इसलिए मैंने भी कुछ भी तुम्हारा अप्रिय किया हो उसके लिए मुझे क्षमा करना। अधिक क्या कहूँ? यहाँ साधु जीवन में द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से मैंने तुम्हारा जो कोई भी अनुचित किया हो, उन सबको भी निश्चय ही मैं खमाता हूँ। फिर तीव्र गुरु भक्ति वाले चित्त युक्त आत्म वृत्ति-वाले, उन सभी ने भी पूर्व जन्म में नहीं सुने हुए गुरु के वचन सुनकर भयभीत बने हुए के समान उत्पन्न हुए शोक से मंद बने गद्गद् स्वर वाले, अति विद्वान होते - 181 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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