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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार रखती है अथवा जैसे तूं अपने दोनों नेत्रों को किसी प्रकार के भेदभाव बिना एक समान सार संभाल रखता है, वैसे विचित्र चित्त प्रकृति वाले भी शिष्य समुदाय प्रति तूं समान दृष्टि वाला बनना। जैसे अति दृढ़ मूल रूप गुण वाले वृक्ष के विविध दिशा में उत्पन्न हुए भी उत्तम पत्ते चारों तरफ घिरे हुए होते हैं, वैसे दृढ़ मूल गुणों से युक्त तुझे भी भिन्न-भिन्न दिशा से आये हुए ये महामुनि भी सर्वथा घिरे हुये रहेंगे। (यहाँ दिशा अलग-अलग गच्छ समुदाय समझना) और जैसे पत्ते के समूह से छाया वाला बना हुआ वृक्ष पक्षियों का आधारभूत बनता है, वैसे मुनि रूपी पत्तों के योग से कीर्ति को प्राप्त करने वाला तूं मोक्ष रूपी फल की इच्छा वाले भव्य प्राणी रूपी पक्षियों के लिए सेवा पात्र बनेगा। ___ इसलिए तुझे इन उत्तम मुनियों को लेशमात्र भी अपमानित नहीं करना। क्योंकि तूंने उठाये हुए सूरिपद के भार को उठाने में तुझे वे परम सहायक हैं। जैसे विन्ध्याचल भद्र जाति के, मंद जाति के, मृग जाति आदि के विविध संकीर्ण जाति वाले हाथियों का सदाकाल भी आधारभूत है, वैसे तूं भी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और क्षुद्र कुल में जन्मे हुए और संयम में रहे सर्व साधुओं का आधारभूत बनना। तथा उसी विन्ध्याचल जैसे नजदीक रहे और दूर वन में रहे हाथियों के यूथों का भेद बिना समान भाव से आधार रूप धारण करता हैं, आश्रय को देता हैं, वैसे हे सुंदर! तूं भी स्वजन-परजन आदि संकल्प बिना समान रूप में इन सर्व मुनियों का आधारभूत बनना। और स्वजन या परजन को भी बालक समान, सदन बिना के, रोगी, अज्ञान, बाल वृद्धादि सर्व मुनियों का परम सहायक तूं बनना। प्रेमयुक्त से पिता समान अथवा दादा समान निराधार का आधार, अनाथ का नाथ बनना। तथा इस दुषमकाल रूपी कठोर गरमी में धर्मबुद्धि रूप जल की तृष्णा वाले साधुओं का तथा संसर्ग से दूर रहने वाली भी 'यह तेरी अन्ते वासियाँ हैं' ऐसा समझकर साध्वियों को भी, मुक्तिपुरी के मार्ग में चलने वाले सुविहित साधुओं की आचार रूपी पानी परब (प्याऊ) में रहा हुआ तूं देशना रूपी नाल द्वारा कर्त्तव्य रूपी जल का पान करवाना, तथा इस लोक में सारणादि करें, वह इस लोक का आचार्य है और परलोक के लिए जिनागम का जो स्पष्ट उपदेश दे वह परलोक का आचार्य। इस तरह आचार्य दो प्रकार के होते हैं। इसमें यदि आचार्य सारणा न करे, वह जीभ से पैर को चाटता है अर्थात् लाड-प्यार करता है तो भी हितकर नहीं है, यदि दण्ड से मारें और सारणादि करें वह भी हितकर नहीं। जैसे कोई शरण में आये हुए का प्राण हरण करता है, उसे महापापी गिना जाता है। वैसे गच्छ में सारणादि करने योग्य को भी सारणादि नहीं करे तो वह आचार्य भी वैसा जानना। इसलिए हे देवानुप्रिय! तूं सम्यक् परलोक आचार्य बनना, केवल इस लोक का आचार्य बनकर स्व-पर का नाशक मत बनना। क्योंकि दुःखियों को तारने में समर्थ परम ज्ञानी आदि गुण को प्राप्त करके जो संसार के भय से डरते जीवों का दृढ़ अण करते हैं. वे धन्य हैं। तथा साध मन वचन या काया से तेरे सैंकड़ों अनिष्ट अपराध करें फिर भी तूं उनका हितकर ही बनना, अप्रीति अल्प भी मत करना। किसी एक का पक्षपात किये बिना रोषादि का जय करके सर्व साधर्मियों के प्रति समचित्त रूप से वर्तन करना। सर्व जीवों के प्रति बंधुभाव करना। परंतु जो अपनी आत्मा को एकाकी ही रागी करता है उसके समान दूसरा मूढ़ कौन हो सकता है? स्वयं क्लेश सहन करके भी तेरे साधर्मिक साधुओं के कार्यों में किसी तरह उत्तम प्रकार से वर्तन करना चाहिए कि जिससे तूं उनके लिए अमृत तुल्य बन जायें। ऐसा करने से तेरी कीर्ति तीनों जगत में शोभायमान होगी। इस कारण से ही किसी ने चंद्र के उद्देश्य से कहा है कि-हे चंद्र! गगन मण्डल में परिभ्रमण कर और दिन प्रतिदिन क्षीणता आदि दुःखों को सतत् सहन कर, क्योंकि सुख भोगने से आत्मा को जगत् प्रसिद्ध नहीं कर सकता है। तथा अज्ञानवश या विकारी प्रकृति के दोष __186 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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