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________________ परगण संक्रमण द्वार- अनुशास्ति द्वार-साध्वी और स्त्री संग से दोष श्री संवेगरंगशाला से जो अपना मन, वचन, काया से पराभव ही करता है, उनको भी तुझे 'तूं स्वामी होने के कारण' बहुत सहन करके भी मधुर वचनों द्वारा उस क्षुद्र भूलों से प्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिए । हे भद्र! अविनीत को शिक्षा देते तूं किसी समय कृत्रिम क्रोध करें तो भी अंतर परिणाम शुद्धि का - - अनुग्रह बुद्धि का त्याग मत करना, निश्चय से सर्व विषयों में यह परिणाम शुद्धि ही रहस्य- तात्त्विक धन है। क्योंकि श्री वीर परमात्मा के आश्रित ग्वाला, खरक वैद्य तथा सिद्धार्थ का गति में भेद रहा है, वैसे दूसरे को पीड़ा देने वाले को भी भिन्न परिणामवश से गति में भेद रहता है। श्री वीर प्रभु के कानों में कील डालकर पीड़ा करने वाले ग्वाले ने दुष्ट परिणाम से नरक गति को प्राप्त किया और उसको निकालने से महान् पीड़ा करते हुए भी खरक वैद्य और सिद्धार्थ दोनों परिणाम शुद्धि होने से देवलोक में गये। हे सुंदर ! यदि तूं अति कठोर बनेगा तो परिवार का खेदकारक बनेगा और अति कोमल बनेगा तो परिवार के पराभव का पात्र बनेगा, इसलिए मध्य परिणामी बनना । निरंकुश परिवार वाला स्वामी भी स्व- पर उभय को दुःख का निमित्त बनता है, इसलिए तूं आचार्य होने पर भी उनके अनुसार वर्तन करने का प्रयत्न करना । प्रायः अनुवर्तन करने से शिष्य परम योग्यता को प्राप्त करते हैं, रत्न भी परिकर्म करने से गुण के उत्कर्ष को प्राप्त करता है। परस्पर विरुद्ध होने से जल और अग्नि का, तथा जहर और अमृत का योग होने पर भी महासमुद्र प्रकृति से ही अविकारी होता है, वैसे ही बाह्य निमित्त के कारण से विविध अंतरंग भाव उत्पन्न होते हैं, परंतु हे सुंदर ! तूं नित्य अनिन्दित रूपवाला होकर भी गंभीर बनना, अर्थात् समुद्र के समान बाह्य विषमता के समय पर भी तूं गंभीर बनना । व्याख्या में कुशल भी यह अति अद्भुत प्रभाव वाले आचार्य पद के प्रत्येक विषय में सर्व प्रकार से उपदेश (शिक्षा) देने में कौन समर्थ हो सकता है? अतः इतना ही कहता हूँ कि जिस-जिस से शासन की उन्नि हो उसका स्वयंमेव विचारकर तुझे वर्तन करना चाहिए ।।४३९१ ।। इस तरह प्रथम गणधर के कर्त्तव्य द्वारा हित- शिक्षा देकर वे आचार्य सूत्रोक्त विधि से शेष साधुओं को हित-शिक्षा दे, जैसे कि - भो ! भो ! देवानुप्रियों! प्रिय या अप्रिय, सर्व विषयों में निश्चय ही आप कभी राग-द्वेष के वश मत होना। स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान आदि योग में सदा अप्रमत्त और साधुजन के उचित अन्य कार्यों में भी नित्य रत बनना। यथावादी तथाकारी बोलना वैसा पालन करने वाले बनना । परंतु निग्रंथ प्रवचन में अल्प भी शिथिल मन वाले मत बनना । असार मनुष्य जीवन में बोध प्राप्त करना दुर्लभ है, ऐसा जानकर अवश्य करणीय संयमाचरण और तपश्चर्या करने में प्रमाद मत करना । श्री जिन वचनानुसारी बुद्धि वाले तुम सदा पाँच समितियों में युक्त, तीन गारव से रहित और तीन दण्ड का निरोध करने वाले बनना । आहारादि संज्ञा, कषाय और आर्त्त रौद्र ध्यान का भी नित्य त्याग करना और सर्व बल से दुष्ट इन्द्रियों पर सम्यग् विजय करना । कवच आदि से युक्त हो और हाथ में धनुष्य बाण धारण किये हो, फिर भी रण में से भागता हो तो वह सुभट जैसे निंदा का पात्र है, वैसे इन्द्रियों और कषायों के वश हुआ साधु भी निंदा का पात्र बनता है। उन साधुओं को धन्य है जो कि ज्ञान और चारित्र में निष्कलंक होकर विषयों को वशकर लोक में राग रहित अलिप्त रूप में विचरते हैं ।।४४०० ।। और जो विरोध से मुक्त, मूढ़ता बिना विषमता में अखण्ड मुख कांति वाले और अखण्ड गुण समूह वाले हैं। वे विस्तृत यश समूह वाले विजयी हैं। शिष्यों की हित- शिक्षा का प्रारंभ किया है। फिर भी वर्णन किये जाते इस विषय को प्रसन्न चित्तवाले हे सूरिजी ! तुम भी एक क्षण सुनों । साध्वी और स्त्री संग से दोष : अप्रमत्त मुनियों! तुम अग्नि और जहर के समान साध्वियों के परिचय को छोड़ो, क्योंकि - साध्वियों Jain Education International For Personal & Private Use Only 187 www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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