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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार- अनुशास्ति द्वार-सुकुमारिका की कथा
के परिचय वाला साधु शीघ्र लोकापवाद को प्राप्त करता है । वृद्ध, तपस्वी, अत्यन्त बहुश्रुत और प्रमाणिक साधु को भी साध्वी के संसर्ग से अपवाद - निंदा रूपी दृढ़ वज्र का प्रहार होता है, तो फिर युवावस्था, अबहुश्रुत, उग्रतप बिना का और शब्दादि विषयों में आसक्त साधु जगत में निंदा का पात्र कैसे नहीं बनेगा? जो साधु सर्व विषयों से भी विमुक्त और सर्व विषयों में आत्मवश - स्वाधीन हो वह भी साध्वियों का परिचय वाला अनात्मवश–चेतना शक्ति खो बैठता है। साधु के बंधन में, साध्वी के समान लोक में दूसरी उपमा नहीं है, अर्थात् साध्वी उत्कृष्ट बंधन रूप है, क्योंकि अवसर मिलते ही वे रत्न त्रयरूपी भाव मार्ग से गिराने वाली है, यद्यपि स्वयं दृढ़ चित्तवाला हो तो भी अग्नि के समीप में जैसे घी पिघल जाता है, वैसे सम्पर्क से परिचित बनी साध्वी में उसका मन रागी बनता है। इसी तरह इन्द्रिय दमन गुण रूप काष्ठ को जलाने में अग्नि समान शेष स्त्री वर्ग के साथ में भी संसर्ग को प्रयत्नपूर्वक दूर से ही त्याग करना । विषयांध स्त्री कुल को, अपने वंश को, पति को, पुत्र को, माता को और पिता को भी नहीं गिनकर उसे दुःख समुद्र में फेंकती हैं। स्त्री रूपी सीढ़ी द्वारा नीच पुरुष भी गुणों के समूह रूपी फलों से शोभित शाखा वाला मान से उन्नत पुरुष रूपी वृक्ष के मस्तक पर चढ़ता है, अर्थात् अभिमानी गुणवान् पुरुष को भी स्त्री संपर्क से नीच भी पराभव करता है। जैसे अंकुश से बलवान हाथियों को नीचे बैठा सकते हैं, वैसे दुष्ट स्त्रियों के संसर्ग द्वारा अभिमानी पुरुषों को भी अधोमुख-हल्के तुच्छ कर सकते हैं। जगत में पुरुषों ने स्त्रियों के कारण अनेक प्रकार के भयानक युद्ध किये हैं, ऐसा महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों से सुना जाता है। नीचे मार्ग में चलने वाली, बहुत जल वाली, कुपित और वक्र गति वाली नदी जैसे पर्वत का भी भेदन करती है, वैसे नीच आचार वाली, ऊँचे स्तनवाली, काम से व्याकुल और मंदगति वाली स्त्रियाँ महान् पुरुषों का भी भेदन करती हैं और नीचे गिरा देती हैं। अच्छी तरह वश की हुई, बहुत दूध पिलाकर पोषण की हुई और अति दृढ़ प्रेम वाली साँपनी के समान अतिवश की हुई और अति दृढ़ प्रेम वाली स्त्रियों में भी कौन विश्वास करें? क्योंकि पूर्ण विश्वासु, उपकार करने में तत्पर और दृढ़ स्नेह वाले पति को भी अल्प इच्छा विरुद्ध अप्रिय होते ही निर्भागी स्त्रियाँ तुरंत मरण का कारण बनाती हैं। पंडितजन भी स्त्रियों के दोषों के पार को नहीं प्राप्त करते हैं, क्योंकि - जगत में बड़े दोषों की अंतिम सीमा तक वे ही होती हैं। रमणीय रूप वाली सुकुमार पुष्पों के समान अंगवाली और गुण से वश हुई स्त्रियाँ पुरुषों के मन को हरण करती हैं। परंतु केवल दिखने की सुंदरता से मोह उत्पन्न कराने वाली उन स्त्रियों के आलिंगन से वज्र की माला के समान तुरंत विनाश होता है। निष्कपट प्रेम से वश मनवाले राजा को भी सुकुमारिका ने पंगु जाट पुरुष के कारण गंगा नामक नदी में धक्का दिया था ।।४४२० ।। उसकी कथा इस प्रकार से है :–
सुकुमारिका की कथा
बसंतपुर नगर में जगत् प्रसिद्ध जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था, उसकी अप्रतिम रूप वाली सुकुमारिका नाम की रानी थी । अत्यंत राग से तन्मय चित्त वाला वह राज्य कार्य को छोड़कर उसके साथ सतत् क्रिड़ा करते काल को व्यतीत करता था । उस समय राज्य का विनाश होते देखकर मंत्रियों ने सहसा रानी सहित उसे निकाल दिया और उसके पुत्र का राज्याभिषेक किया। फिर मार्ग में आते जितशत्रु जब एक अटवी में गया, तब तृष्णा से पीड़ित रानी ने पानी पीने की याचना की, तब रानी भयभीत न हो ऐसा विचारकर उसकी आँखें बंध करके और राजा ने औषध के प्रयोग से स्वयं मरे नहीं इस तरह अपनी भुजा का रुधिर उसे पिलाया। फिर भूख से पीड़ित रानी को राजा ने अपनी जंघा काटकर मांस खिलाया और सरोहिणी औषधी से उसी समय जंघा को पुनः स्वस्थ कर दिया। फिर वे दूर के किसी नगर में जब पहुँचे तब सर्व कलाओं में कुशल राजा उसके
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