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________________ समाधि लाभ द्वार-लग्गति राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला मन पसंद भोजन, और मन पसंद घर होने पर अविषादी-अखंड मन योग वाले मुनि मनोज्ञ ध्यान को कर सकते हैं। इसलिए अपेक्षित कारण सामग्री बिना भावना भी प्रकट नहीं होती है। इसका उत्तर देते हैं कि-यह तुम्हारा कथन केवल मन के निरोध करने में असमर्थ मुनि के उद्देश्य से सत्य है, परंतु कषायों को जीतनेवाला जो अति वीर्य और योग के सामर्थ्य से मन के वेग को रोकने वाला है। जो अन्य से प्रकट की हुई और बढ़ती तीव्र वेदना से शरीर में व्याकुलित होते कषाय मुक्त स्कंदक के शिष्यों के समान शुभ ध्यान को अल्पमात्र भी खंडित नहीं करते उनको बाह्य निमित्त से कोई प्रयोजन नहीं है। शुभ और अशुभ दोनों भाव स्वाधीन हैं, इसलिए शुभ करना श्रेष्ठ है। ऐसा पंडित कौन सा होगा कि स्वाधीन अमृत को छोड़कर जहर को स्वीकार करेगा? अतः हे देवानुप्रिय! 'मुझे यह मोक्ष प्रिय है' ऐसा निश्चय करके मोक्ष में एक दृढ़ लक्ष्यवाला तूं हमेशा भाव प्रधान बन। यह भावना संसार में भव की भयंकरता से दुःखी हुए उत्तम भव्यों द्वारा भावित करने से इसको नियुक्ति (व्युत्पत्ति) सिद्ध नाम भी (भावना) शब्द बनता है। निश्चय जो एकांत शुभ भाव है वही भावना है और जो भावना है, वही एकांत शुभ भाव भी है। ये भाव बारह प्रकार के हैं अर्थात् वह भावना बारह प्रकार की है, वह भाव और भावना भी संवेग रस की वृद्धि से शुभ बनती है। अतः उस भाव को प्रकट करने के लिए क्रमशः (१) अनित्य भावना, (२) अशरण भावना, (३) संसार भावना, (४) एकत्व भावना, (५) अन्यत्व भावना, (६) अशुचि भावना, (७) आश्रव भावना, (८) संवर भावना, (९) कर्म निर्जरा भावना, (१०) लोकत्व भावना, (११) बोधि दुर्लभ भावना और (१२) धर्म गुरु दुर्लभता भावना का चिंतन करना चाहिए। इन बारह भावनाओं में सर्व प्रथम हमेशा संसार जन्य समस्त वस्त समह की अनित्य भावना का इस तरह चिंतन कर ।।८५६३।। वह इस प्रकार : ?) अनित्य भावना :- अहो! अर्थात् आश्चर्य है कि यौवन बिजली के समान अस्थिर है। सुख संपदाएँ भी संध्या के बादल के राग की शोभा समान हैं और जीवन पानी के बुलबुले समान अत्यंत अनित्य ही है। परम प्रेम के पात्र माता, पिता, पुत्र और मित्रों के साथ जो संयोग है वह सब अवश्य ही अनित्य से युक्त क्षणिक है। और शरीर सौभाग्य, अखंड पंचेन्द्रियपना प्राप्त होना, रूप, बल, आरोग्य और लावण्य की शोभा, ये सब अस्थिर हैं। भवनपति, वाण व्यंतर, ज्योतिषी, और बारह कल्प आदि में उत्पन्न हुए सर्व देवों का भी शरीर रूप आदि समस्त अनित्य है। मकान, उपवन, शयन, आसन, वाहन और यान आदि के साथ के यह लोक-परलोक में भी जो संयोग है वह भी अवश्य ही अनित्य है। एक पदार्थ की अनित्यता देखकर अनुमान द्वारा दूसरे पदार्थों की भी अनित्यता को सर्वगत मानकर धन्य पुरुष नग्गति राजा के समान धर्म में उद्यम करता है। वह इस प्रकारः नग्गति राजा की कथा गंधार देश का स्वामी नग्गति नामक राजा था, वह घोड़े, हाथी, रथ के ऊपर बैठे अनेक सामंत राजाओं के समूह से घिरे हुए अति ऋद्धि के समूह से शोभता था। स्वयं बसंत ऋतु के समागम से शोभायमान उद्यान को देखने के लिए अपने नगर से निकला। वहाँ जाते हुए अर्ध बीच में विकसित बड़े पत्रों से शोभित, पुष्पों के रस बिंदुओं से पीली हुई मंजरी के समूह से रमणीय, घूमते हुए भौरे धूं-धूं गुंजारव के बहाने से मानो गीत गाते हो, इस तरह वायु से प्रेरणा पाकर शाखा रूपी भुजाओं द्वारा मानो नृत्य प्रारंभ किया हो, मदोन्मत्त कोमल शब्द के बहाने से मानो काम की स्तुति करता हो, और गीच पत्तो रूपी परिवार से व्याप्त एक खिले आम्र वृक्ष को देखा। फिर उसके रमणीयता गुण से प्रसन्न चित्त वाले उस राजा ने वहाँ से जाते कुतूहल से एक मंजरी तोड़ ली। इससे अपने स्वामी के मार्गानुसार चलने वाले सेवक लोगों में से किसीने मंजरी, किसीने पत्ते समूह, किसी ने गुच्छे तो 357 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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