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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-सेट पुत्र की कथा किसी ने डाली का अग्र भाग को अन्य किसी ने कोमल पत्ते तो किसीने कच्चे फल समूह को ग्रहण करने से क्षण में उस वृक्ष को ठूंठ जैसा बना दिया। फिर आगे चलते रहट यंत्र का चीत्कार रूप शब्दों से दिशाएँ बहरी हो गयी ऐसे फैलते सुगंध के समूह से आते भौंरे की श्रेणियों से मनोहर विकसित ठण्डे प्रदेश वाले उस उद्यान में पहुँचा । थके हुए यात्री के समान थोड़े समय घूमकर फिर उस मार्ग से ही वापिस चला, राजा ने वहाँ उस वृक्ष को नहीं देखने से लोगों से पूछा कि वह आम्र का वृक्ष कहाँ है? तब लोगों ने ठूंठ समान रूप वाला उस आम्रवृक्ष को दिखाया तब विस्मित मन वाले राजा ने कहा कि - ऐसा वह कैसे बन गया? लोगों ने भी पूर्व की सारी बात कही। इसे सुनकर परम संवेग को प्राप्त करते राजा भी अत्यंत सूक्ष्म बुद्धि से विचार करने लगा कि - अहो ! संसार की दुष्ट चेष्टा को धिक्कार है, क्योंकि यहाँ पर ऐसी वस्तु नहीं है कि जिसका अनित्यता से सदा सर्व प्रकार से नाश नहीं होता हो ? इस आम्र वृक्ष के अनुमान से ही बुद्धिमान को अनित्यता से व्याप्त स्वशरीरादि सर्व वस्तुओं पर राग का स्थान क्यों होता है? इस प्रकार विविध प्रकार से चिंतनकर महासत्त्वशाली वह राजा राज्य, अन्तःपुर और नगर को छोड़कर प्रत्येक बुद्ध चारित्र वाला साधु बना ।
यह कथा सुनकर हे सुंदर मुनि ! तूं एकांत में गीतार्थ साधु के साथ सर्व पदार्थों की अनित्यता का चिंतन मनन कर । इस प्रकार जिस कारण से संसार जन्य समस्त वस्तुओं की अति अनित्यता है उस कारण से ही उन प्राणियों को अल्पमात्र भी शरण नहीं है। जैसे कि
(२) अशरण भावना :- सर्व जीव समूह के रक्षण करने में वत्सल, महान् और करुणा रस से श्रेष्ठ एक ही श्री जिनवचन हैं। इनको छोड़कर जन्म, जरा, मरण, उद्वेग, शोक, संताप और व्याधियों से विषम और भयंकर इस संसार अटवी में प्राणियों का कोई शरण नहीं है। तथा केवल एक श्री जिनवचन में रहे आत्मा के बिना पुरुष अथवा देवों में किसी दिव्य शक्ति, द्वारा बख्तर सहित, मस्त हाथी, चपल घोड़े, रथ और योद्धा के समूह की रचनाओं द्वारा, बुद्धि द्वारा, नीति बल द्वारा, अथवा स्पष्ट पुरुषार्थ बल द्वारा भी पूर्व में मृत्यु को जीता नहीं है। माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र और अत्यंत स्नेही स्वजन तथा धन के ढेर भी रोग से पीड़ित पुरुष को अल्प भी शरणभूत नहीं होते हैं। एक ही श्री जिनवचन बिना अन्य मंगलों से, मंत्रपूर्वक स्नानादि से, मंत्रित चूर्णों से, मंत्रों से और वैद्यों की विविध औषधियों से रक्षण नहीं होता है। इस प्रकार विचार करते इस संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप नहीं है। उसी कारण से ही दुःसह नेत्र पीड़ा से व्याकुलित शरीर वाला, प्रथम दिव्य यौवन को प्राप्त कर बुद्धिमान कौशाम्बी के धनिक पुत्र सर्व संबंधों का त्यागकर संयम उद्योग को स्वीकार किया था। उसकी कथा इस प्रकार :
सेठ पुत्र की कथा
राजगृही नगरी के स्वामी श्रेणिक राजा घूमने निकले। वहाँ मंडिकुक्षि नामक उद्यान में वृक्ष नीचे बैठे हुए, रतिरहित कामदेव हो, ऐसे शोभायमान तथा शरद ऋतु के चंद्र की कला समान कोमल शरीर वाले एक उत्तम मुनि को देखा। उसे देखकर रूप आदि गुणों की बहुत प्रशंसाकर तीन प्रदक्षिणा देकर आदरपूर्वक नमस्कार कर उनके नजदीक में बैठा और दोनों हाथ से अंजलि जोड़कर विस्मयपूर्वक राजा बोला कि - हे भगवंत यौवनावस्था के अंदर साधुधर्म में क्यों रहे हो? साधु ने कहा कि - हे राजन् ! मेरा कोई भी शरण नहीं था इसलिए दुःखों का क्षय करने वाली इस दीक्षा को मैंने स्वीकार की है || ८६०० ।। फिर हास्य से उछलते दांत की उज्ज्वल कांति से प्रथम उदय होते सूर्य समान लाल कांतिवाले होठ को उज्ज्वल करते राजा ने कहा कि हे भगवंत! अप्रतिम स्वरूप वाले और लक्षणों से प्रकट रूप अति विशाल वैभव वाले दिखते हुए भी आप अशरण कहते हो, वह मैं किस
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