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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार रहने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में परम रसिकता वाले, पूर्ण आज्ञाधीनता से रहने वाले, संयम गुणों में एक बद्ध लक्ष्य वाले, परमार्थ की गवेषणा करने वाले, संसारवास की निर्गुणता की विचारणा रखनेवाले और इससे ही परम संवेग द्वारा उसके प्रति परम वैराग्य भावना प्रकट करने वाले तथा संसार रूप गहन अटवी से प्रतिपक्षभूत रक्षक क्रिया कलाप करने में कुशल इत्यादि साधु गुणों की तूं त्रिविध-त्रिविध हमेशा सम्यक् प्रकार से अनुमोदना कर। तथा समस्त श्रावक भी प्रकृति से ही उत्तम धर्म प्रियतायुक्त हैं, श्री जिन वचनरूपी धर्म के राग से निमग्न शरीर में अस्थि मज्जा जैसे धर्म राग वाले, जीव, अजीव आदि समस्त पदार्थों के विषय को जानने में परम कुशलता प्राप्त करने वाले, देवादि द्वारा भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से अर्थात् जिन शासन से क्षोभ प्राप्त नहीं करते और सम्यग् दर्शन आदि मोक्ष साधक गुणों में अति दृढ़ता आदि गुणों की तूं सदा त्रिविध-त्रिविध सम्यक् प्रकार से अनुमोदना कर। अन्य भी जो आसन्न भवी, भद्रिक परिणामी, अल्प संसारी, मोक्ष की इच्छा वाले, हृदय से कल्याणकारी वृत्ति वाले तथा लघुकर्मी देव, दानव, मनुष्य अथवा तिथंच इन सर्व जीवों का भी सन्मार्गानुगामिता, अर्थात् मार्गानुसारी जीवन की तूं सम्यग् अनुमोदना कर। इस तरह हे भद्र! ललाट पर दोनों हस्त अंजलि जोड़कर इस प्रकार श्री अरिहंत आदि के सुकृत्यों की प्रतिक्षण सम्यग् अनुमोदना करते तुझे उन गुणों को शिथिल नहीं करना किंतु रक्षण करना है। बहुत काल से भी एकत्रित किये कर्ममल को भी क्षय करना और इसी तरह कर्म का घात करते हे संदर मनि! तेरी सम्यग आराधना होगी। इस तरह से सुकृत की अनुमोदन द्वार को कहा। अब भावना पटल-समूह नामक चौदहवाँ अंतर द्वार कहता हूँ ।।८५४०।। भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार : जैसे प्रायः सर्व रसों का मुख्य नमक मिश्रण है, अथवा जैसे पारे के रस संयोग से लोहे का सुवर्ण बनता है, वैसे धर्म के अंग जो दानादि हैं वे भी भावना बिना वांछित फलदायक नहीं होते हैं। इसलिए हे क्षपक मुनि! उस भावना में उद्यम कर। जैसे कि-दान बहुत दिया, ब्रह्मचर्य का भी चिरकाल पालन किया, और तप भी बहुत किया, परंतु भावना बिना वह कोई भी सफल नहीं है। भाव शून्य दान में अभिनव सेठ और भाव रहित शील तथा तप में कंडरिक का दृष्टांत भूत है। बलदेव का पारणा कराने की भावना वाले हिरन ने कौन सा दान दिया था, तथापि भावना की श्रेष्ठता से उसने दान करने वाले के समान फल प्राप्त किया था। अथवा तो जीर्ण सेठ दृष्टांत रूप है कि केवल दान देने की भावना से भी, दान बिना भी महा पुण्य समूह को प्राप्त किया था। शील और तप के अभाव में भी स्वभाव से ही बढ़ते तीव्र संवेग से शील तप केवल परिणाम से परिणत हुआ था फिर भी मरुदेवा माता सिद्ध हुई तथा हे क्षपक मुनि! शील तप के परिणाम वाले अल्पकाल तप शील वाले भगवंत अवंतिसुकुमाल शुभ भावना रूप गुणों से महर्द्धिक देव हुआ। और दान धर्म में अवश्य धन के अस्तित्व की अपेक्षा रखता है तथा यथोक्त शील और तप भी विशिष्ट संघयण की अपेक्षा वाला है। परंतु यह भावना तो निश्चय अन्य किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखती, वह शुभ चित्त में ही प्रकट होती है। इसलिए उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए ।।८५५०।। ___ यहाँ प्रश्न करते हैं कि यह भावना भी अंतर की धीरता के लिए बाह्य कारण की अपेक्षा रखती है। क्योंकि उद्विग्न मन वाला अल्प भी शुभ ध्यान को करने में समर्थ नहीं होता है। इसलिए ही कहा जाता है कि 356 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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