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समाधि लाभ द्वार-तेरहवाँ सुष्कृत अनुमोदना द्वार
श्री संवेगरंगशाला जीवों के प्रति वात्सल्यता से तीर्थ प्रवर्तना करने में वे तत्परत रहते, सर्व गुणों की उत्कृष्टता वाले, सर्वोत्तम पुण्य के स
पर्व अतिशयों के निधान रूप राग देष मोह से रहित. लोकालोक के प्रकाशक केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी से युक्त, देवों द्वारा श्रेष्ठ आठ प्रकार के प्रभाव वाले, प्रतिहार्यों से सुशोभित, देवों द्वारा रचित सुवर्ण कमल के ऊपर चरण कमल स्थापन कर विहार करने वाले, अग्लानता से बदले की इच्छा बिना, भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने वाले, उपकार नहीं करने वाले, अन्य जीवों के प्रति अनुग्रह प्राप्त कराने के व्यसनी, उनकी एक साथ में उदय आती समस्त पुण्य प्रकृति वाले, तीनों लोक के समूह से चरण कमल की सेवा पाने वाले, विघ्नों को नाश करते स्फूरायमान ज्ञान, दर्शन गुणों को धारण करने वाले, यथाख्यात चारित्र रूपी लक्ष्मी की समृद्धि को भोगने वाले, अबाधित प्रतापवाले, अनुत्तर विहार से विचरने वाले, जन्म, जरा, मरण रहित शाश्वत सुख का स्थान मोक्ष को प्राप्त करने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्री जिनेश्वर भगवंतों के गुणों की तूं त्रिविध-त्रिविध सम्यग् अनुमोदना कर।
___ इस तरह श्री सिद्ध परमात्मा के गुणों की अनुमोदना कर जैसे कि-मूल में से पुनः संसार वास को नष्ट हुए, ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्म लेप को दूर करने वाले, राहु ग्रह की कांति के समूह दूर होने से, सूर्य चंद्र प्रकाशित होते है वैसे ही कर्ममल दूर होने से प्रकाशित आत्मा के यथास्थित शोभायमान, शाश्वतमय, वृद्धत्वाभावमय, अजन्ममय, अरूपीमय, निरोगीमय, स्वामिरहित, संपूर्ण स्वतंत्र सिद्धपुरी में शाश्वत रहने वाले, स्वाधीन, एकान्तिक, आत्यंतिक और अनंत सुख समृद्धिमय, अज्ञान अंधकार का नाश करने वाले, अनंत केवल ज्ञान, दर्शन स्वरूपमय, समकाल में सारे लोक अलोक में रहनेवाले, सद्भूत पदार्थों को देखनेवाले और इससे ही आत्यन्तिक अनंत वीर्य से युक्त शब्दादि से अगम्य युक्त, अच्छेद्य युक्त, अभेद्य युक्त, हमेशाकृत कृत्यतावाले, इन्द्रियरहित और अनुपमता वाले, सर्व दुःखों से रहित, पापरहित, रागरहित, क्लेश रहित, एकत्व में रहनेवाले, अक्रिययुक्त, अमृत्यता और अत्यंत स्थैर्ययुक्त तथा सर्व अपेक्षा से रहित, समस्त क्षायिक गुण वाले, नष्ट परतंत्रता वाले, और तीन लोक में चुडामणि से युक्त, इस तरह तीन लोक से वंदनीय, सर्व सिद्ध परमात्माओं के गुणों की तूं हमेशा त्रिविध-त्रिविध सम्यग् अनुमोदना कर।
एवं सर्व आचार्यों का जो सुविहित पुरुषों ने सम्यग् आचरण किया हुआ, प्रभु के पाद प्रसाद से भगवंत बने, पाँच प्रकार से आचार का दुःख रहित, किसी प्रकार के बदले की आशा बिना, समझदारी पूर्वक सम्यक् पालन करने वाले, सर्व भव्य जीवों को उन आचारों का सम्यग् उपदेश देने वाले और उन भव्यात्मों को नया आचार प्राप्त करवाकर उन्हीं आचारों का पालन करवाने वाले श्री आचार्य के सर्व गणों की तं सम्यक प्रकार से अनुमोदना कर।
इसी प्रकार पंचविध आचार पालन करने में रक्त और प्रकृति से ही परोपकार करने में ही प्रेमी श्री उपाध्यायों को भी जो आचार्य श्री के जवाहरात की पेटी समान है, जो अंग उपांग और प्रकीर्णक आदि से युक्त श्री जिन प्रणित बारह अंग सूत्रों को स्वयं सूत्र अर्थ और तदुभय से पढ़ने वाले और दूसरों को भी पढ़ानेवाले श्री उपाध्याय महाराज के गुणों की हे क्षपकमुनि! तूं सदा सम्यग् रूप से त्रिविध-त्रिविध अनुमोदना कर।
__इसी तरह कृतपुण्य चारित्र चूड़ामणि धीर, सुगृहित नामधेय, विविध गुण रत्नों के समूह रूप और सुविहित साधु भी निष्कलंक, विस्तृत शील से शोभायमान, यावज्जीव निष्पाप आजीविका से जीनेवाले, तथा जगत के जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखनेवाले अपने शरीर में ममत्व रहित रहने वाले, स्वजन और परजन में समान भाव को रखने वाले और प्रमाद के विस्तार को सम्यक् प्रकार से रोकने वाले, संपूर्ण प्रशम रस में निमग्न
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