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आच
श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्धार-तेरहवाँ सुष्कृत अनुमोदना द्वार भी यदि करणीय नहीं किया और अकरणीय किया, उसकी भी निंदा कर। हे क्षपकमुनि! लोक में मिथ्यामत प्रवृत्ति से, मिथ्यात्व के शास्त्रों के उपदेश देने से, मोक्ष मार्ग को छुपाने और उन्मार्ग की प्रेरणा देने से इस तरह तूं अपना और पर को कर्म समूह के बंध करने में यदि निमित्त बना हो, तो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर ।।८४७९ ।।
अनादि अनंत इस संसार चक्र में कर्म के वश होकर परिभ्रमण करते तूंने प्रति जन्म में जो-जो पापारंभ में तल्लीन रहकर विविध शरीर को और अत्यंत रागी कुटुंबों को भी ग्रहण किया और छोड़ा उन सबका हे क्षपक मुनि! त्याग कर। लोभ के वश होकर तूंने धन को प्राप्त कर जो पाप स्थान में उपयोग किया उस सर्व का भी सम्यग रूप में त्याग कर। भूत भविष्य वर्तमान काल में जो-जो पापारंभ की प्रवृत्ति की उन सबका अव तूं सम्यग् रूप से त्याग कर। जिन-जिन श्री जिनवचनों को असत्य कहा, असत्य में श्रद्धा की अथवा असत्य वचन का अनुमोदन किया हो, उन सबकी गर्दा कर। यदि क्षेत्र, काल आदि के दोषों से श्री जिनवचन का सम्यग्
ण नहीं कर सका हो. अवश्यमेव जो मिथ्या क्रिया में राग किया हो और सम्यक क्रिया के मनोरथ भी नहीं किये हो, इसलिए हे सुंदर मुनि! तूं बार-बार सविशेष सम्यक् प्रकार से निंदा कर ।।८४८७।।
हे क्षपक मुनिवर्य! अधिक क्या कहें? तूं तृण और मणि में, तथा पत्थर और सुवर्ण दृष्टिवाला, शत्रु और मित्र में समान चित्तवाला होकर संवेग रूप महाधन वाला तूं सचित्त-अचित्त अथवा मिश्र किसी वस्तु के कारण जो पाप किया हो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। पर्वत, नगर, खान, गाँव, विश्रांति गृह, विमान तथा मकान अथवा खाली आकाश आदि में, उसके निमित्त ऊर्ध्व, अधो या तिज़लोक में, भूत, भविष्य या वर्तमान काल में एवं शीत, उष्ण और वर्षा काल में किसी प्रकार से भी, रात्री अथवा दिन में औदयिकादि भावों में रहते, अति राग, द्वेष और मोह से सोते या जागते, इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में तीव्र, मध्यम, या जघन्य, सूक्ष्म या बादर, दीर्घ अथवा अल्पकाल स्थिति वाला, पापानुबंधी यदि कोई भी पाप मन, वचन, या काया से किया, करवाया या अनुमोदन किया उसे श्री सर्वज्ञ भगवंत के वचन से 'यह पाप है, गर्दा करने योग्य है और त्याग करने योग्य है।' इस तरह सम्यग् रूप से जानकर, दुःख का संपूर्ण क्षय करने के लिए श्री अरिहंत, सिद्ध, गुरु और संघ की साक्षी में उन सबकी सर्व प्रकार से सम्यग् निंदा कर, गर्दा कर, और प्रतिक्रमण कर। इस प्रकार आराधना में मन लगाने वाला और मन में बढ़ते संवेग वाले हे क्षपक मुनि! तूं समस्त पाप की शुद्धि के लिए मुख्य अंगभूत मिच्छा मि दुक्कड़म् भावपूर्वक बोल! पुनः भी मिच्छा मि दुक्कड़म् को ही बोल और तीसरी बार भी मिच्छा मि दुक्कड़म् इस तरह बोल। और पुनः उन पापों को नहीं करने का निश्चय रूप से स्वीकार कर।
इस प्रकार दुष्कृत गर्दा नामक बारहवें अंतर द्वार का वर्णन किया है। अब तेरहवाँ सुकृत की अनुमोदना द्वार कहता हूँ ।।८४९८।। वह इस प्रकारतेरहवाँ सुकृत अनुमोदना द्वार :
हे क्षपक मुनिवर्य! महारोग के समूह से व्याकुल शरीर वाले रोगी के समान जैसे वह शास्त्रार्थ में कुशल वैद्य के कथनानुसार क्रिया कलाप की अनुमोदना करता है वैसे भाव आरोग्यता के लिए तूं समस्त श्री जिनेश्वरों का जो अनेक जन्मों तक शुभ क्रियाओं का आसेवन द्वारा भाव से भावित रूप हुए। उसकी सम्यग् अनुमोदना कर!।।८५००।। उसमें श्री तीर्थंकर परमात्मा के जन्म से पूर्व तीसरे जन्म में तीर्थंकर पद के कारणभूत उन्होंने वीश स्थानक की आराधना की थी, इससे देव जन्म से ही साथ में आया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान रूप निर्मल तीनों ज्ञान सहित उनका गर्भ में आगमन होता है, जिन कल्याणक दिन में सहसा निरंतर समूहबद्ध आते सर्व चार निकाय के देवों से आकाश पूर्ण भर जाता है, इससे तीनों लोक की एकता बताने वाले, जगत के सर्व
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