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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-वसतिदान पर कुलचन्द्र की कथा बड़े रोग से पीड़ित और अपने स्वजनों के पराभव से अपमानित सत्पुरुषों को या तो मर जाना चाहिए अथवा अन्य देश में जाना योग्य है। इससे विनष्ट शरीर वाला और नित्यखल मनुष्यों की विलासी कटाक्ष वाली अपूर्ण नजर से मुझे देखते अब मुझे एक क्षण भी यहाँ रहना योग्य नहीं है। इससे अपने परिवार को कहे बिना ही वह अकेला पूर्व दिशा की ओर वेग से चल दिया। अत्यन्त दीन मन वाला वह धीरे-धीरे चलते क्रमशः अन्यान्य पर्वत, खीण, नगर और गाँव के समूह को देखता हुआ सम्मेत नामक महापर्वत के नजदीक एक शहर में पहुँचा और वहाँ लोगों से पूछा कि-इस पर्वत का क्या नाम है? लोगों ने कहा-हे भोले! दूर देश से आया है अनजान तूं जो सूर्य के समान अति प्रसिद्ध भी इस पर्वत का नाम पूछ रहा है तो वर्णन सुन : यह सम्मेत नाम का महा गिरिराज है. जहाँ भक्ति के समूह से पूर्ण सुर असुरों के द्वारा स्तुत्य वीश जिनेश्वर भगवान ने शरीर का त्यागकर निर्वाण पद प्राप्त किया है। उस पर्वत मार्ग में आते भव्यों को पवन से उछलते वृक्षों के पत्र रूप हाथ द्वारा और पक्षियों के शब्द रूप वचन से सब आदरपूर्वक आराधना के लिए निमंत्रण करते हैं। जहाँ नासिकाग्र भाग में आँखों का लक्ष्य स्थापनकर, अल्प भी शरीर सुख की अपेक्षा बिना के एकाग्र चित्तवाले योगियों का समूह विघ्न बिना परम अक्षर (ब्रह्म) का ध्यान करते हैं। जहाँ भूमि के गुण प्रभाव से अनेक दुष्ट प्राणी भी वैर छोड़कर परस्पर क्रीड़ा करते हैं, और मुग्ध भी वहाँ विवाद बिना प्रसन्नता से प्राण त्याग रूप अनशन कर देव रूप बनते हैं। तथा इस गिरि के अति रमणीय रूप गुण से प्रसन्न होकर किन्नर किन्नरियाँ शत्रु का भय छोड़कर यहाँ विलास करती हैं, और सर्व ऋतुओं के पुष्पों से शोभित एवं फलों के समूह से मनोहर बना वन जहाँ चारों दिशा में शोभायमान है। ऐसा सुनकर चित्त में अत्यन्त आनंदित हुआ, 'यह तीर्थ है' ऐसा मानकर शरीर को छोड़ने की भावना वाला वह ताराचन्द्र आगे बढ़ा और पर्वत की अन्तिम ऊँचाई पर पहुंचा। विशाल शिखरों से सभी दिशाएँ विस्तारपूर्वक चारों ओर से ढकी हुई हो ऐसे पर्वत पर धीरे-धीरे सम्यग् उपयोगपूर्वक चढ़ा, फिर हाथ पैर की शुद्धि एवं शुद्ध वस्त्र पहनकर सरोवर में से कमलों को लेकर, वस्त्र से मुख बाँधकर, उसने मणि रत्नों से देदीप्यमान श्री अजितनाथ आदि जिनेश्वरों की प्रतिमा की तथा कान्तिरूपी पानी से धाई हो ऐसी उज्ज्वल स्फटिकमय सिद्धशिलाओं की श्रेष्ठ पूजा की, फिर श्री जिन भगवान के चरणों की पूजा से और उस सिद्ध क्षेत्र के शुभ गुणों से बढ़ते शुभ भावना वाला, आनन्द से झरते नेत्रों वाला वह इस प्रकार स्तुति करने लगा : इस संसार में अनंतकाल से रूढ़ हुआ मोह का नाश कर, प्रबल जन्म-मरण की लता का उन्मूलन कर मोक्ष मार्ग के उपदेशक जिस जिनेश्वर भगवान ने उपद्रव रहित, अचल और अनंत सिद्धि गति में वास किया है, वे विजयी हों। जिनके चरणों में केवल नमस्कार करने के प्रभाव से भी भव्य जीव लीलामात्र में सम्पूर्ण श्रेष्ठ सुख से सनाथ युक्त होते हैं और जो अपनी हथेली के समान लोकालोक को देखते हैं, जानते हैं, ऐसे तीन भुवन में पूज्य श्री जिनेश्वर की जय हो। इस तरह भगवान की स्तुति कर प्रसन्न बना, रोग रूपी क्रीड़ाओं से जर्जरित बने हुए शरीर का त्यागकर ऊँचे पर्वत के दूसरे शिखर पर जब चढ़ता है, इतने में शरद के चन्द्र समान उज्ज्वल, फैली हुई विशाल कान्ति के समूहवाले, अठारह हजार शील रूपी रथ के भार से दबे हुए हो, इस तरह अति नम्र कायारूपी लता वाले, नीचे मुँह वाले, लम्बी की हुई लम्बी भुजा वाले, हाथ के नखों की किरण रूपी रस्सी से नरक रूपी कुएँ में गिरे हुए जीव लोक को ऊपर खींचते हो, ऐसे मेरुपर्वत के समान निश्चल, पैर की अंगुलियाँ की निर्मल कान्ति वाले, दस नख के बहाने से मानो क्षमा आदि दस प्रकार के मुनि धर्म को प्रकाशित करते हो, स्फटिक रत्न की देदीप्यमान कान्ति वाली पर्वत की गुफा में रहे अति सुशोभित शरीर वाले, मानो सुख के समूह 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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