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________________ परिकर्म द्वार - वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा श्री संवेगरंगशाला को प्रकट करने की भूमि हो ऐसे काउस्सग्ग में रहे एक साधु भगवंत को देखा। फिर मृत्यु तो मेरे स्वाधीन है ही! पहले इन मुनि को नमस्कार करूँ ऐसा चिंतनकर, सत्कार से भरी हुई आँखों वाले उस ताराचन्द्र ने साधु को नमस्कार किया। भक्ति पूर्वक नमस्कार कर जब आश्चर्य भरे, चित्तवाला वह उनके रूप को देखने लगा, उसी समय आकाश तल से विद्याधर का जोड़ा नीचे आया, और हर्षपूर्वक विकसित नेत्रोंवाले उस दम्पती ने मुनि के ने चरणकमल में नमस्कार कर, गुण की स्तुति कर निर्मल पृथ्वी पीठ पर बैठे, तब ताराचन्द्र पूछा- आप यहाँ किस कारण से पधारें हैं ? विद्याधर ने कहा- विद्याधरों की श्रेणी वैताढ्य पर्वत से इन प्रभु को वंदन करने के लिए आये हैं। ताराचन्द्र ने कहा- हे भद्र! यह मुनि सिंह कौन हैं? जो कि आभूषण के त्यागी होते हुए भी दिव्य अलंकारों से भूषित हों और मनुष्य होते हुए भी अमानुषी दैव महिमा से शोभित हों ऐसे दिखते हैं ।। २३४८ । । अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक पूछने से प्रसन्न बनें उस विद्याधर ने कहा - सुनो ! - अनेक गुणों से युक्त ये महात्मा विद्याधरों की श्रेणी के नाथ हैं। जन्म-जरा-मरण के रणकार से भयंकर इस संसार के असीम दुःखों को जानकर, राज्य पर अपने पुत्र को स्थापनकर स्वयंमेव समत्व प्राप्त किया है, शत्रुमित्र समान माननेवाले उत्तम साधु बनें हैं। उत्तम राज्य लक्ष्मी को और अत्यन्त भोगों को खल स्त्री के समान इन्होंने लीलामात्र में छोड़ दिया है, आज भी इनकी विरहाग्नि से जलती अंतःपुर की स्त्रियाँ रोती रुकी नहीं हैं। प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याएँ इनके कार्यों में दासी के समान सदा तैयार रहती थीं, और चिरकाल से वृद्धि होती अति देदीप्यमान उनकी कीर्ति तीन लोकरूपी रंग मण्डप में नटनी के समान नाचती है। तप शक्ति से उनको अनेक लब्धियाँ प्रकट हुई हैं, अनुपम सुख समृद्धि से जो शोभते हैं और ये अखण्ड मासखमण करते हैं। इनके समान इस धरती में कौन है? इस प्रकार गुणों से युक्त, भव से विरक्त, चारित्ररूपी उत्तम रत्नों निधान रूप, निरुपम करुणारूपी अमृत रस के समुद्र और राजाओं से वंदनीय यह मुनीश्वर हैं ऐसा जान। ऐसा कहकर विद्याधर जब रुके, तब रोमांचित काया वाला ताराचन्द्र ने फिर भक्तिपूर्वक मुनि को वंदन किया। फिर उसके शरीर को महान् रोगों से जर्जरित देखकर विद्याधर ने कहा- अरे महायश! तूं अत्यन्त महिमा वाला और गुणों का निधान रूप इस उत्तम मुनि के कल्पतरु की कुंपल समान चरण युगल को स्पर्श करके इस रोग को दूर क्यों नहीं करता है? ऐसा सुनकर परमहर्ष रूप धन को धारण करते ताराचन्द्र ने मस्तक से महामुनि के चरण कमल को स्पर्श किया। मुनि की महिमा से उसी क्षण में उसका दीर्घकाल का रोग नाश होते ही ताराचन्द्र सविशेष सुंदर और सशक्त शरीर वाला हुआ। उस दिन से ही अपना जीवन नया मिला हो ऐसा मानता हुआ परम प्रसन्नतापूर्वक वह स्तुति करने लगा कि :- ।। २३६० ।। हे कामदेव के विजेता ! सावद्यकार्यों के राग बंधन को छोड़ने वाले ! संयम के भार को उठाने वाले ! और समाधिपूर्वक मोहरूपी महाग्रह को वश करने वाले, हे मुनीश्वर ! आप विजयी रहो! देव और विद्याधरों से वंदनीय ! रागरूपी महान् हाथी का नाश करने में सिंह समान और स्त्रियों के तीक्ष्ण कटाक्ष रूपी लाखों बाणों से भी क्षोभित नहीं होने वाले हे महामुनीश्वर ! आपकी जय हो ! तीव्र दुःखरूपी अग्नि से जलते प्राणियों के अमृत की वर्षा समान ! काश नामक वनस्पति के उज्ज्वल पुष्पों के प्रकाश सदृश, उछलते उज्ज्वल यश से दिशाओं को भी प्रकाशमय बनाने वाले हे मुनीश्वर ! आपश्री की जय हो ! कलिकाल के फैले हुए प्रचण्ड अंधकार से नाश होते मोक्ष मार्ग के प्रकाशक प्रदीप रूप ! महान् गुणों रूपी असामान्य श्रेष्ठ रत्नसमूह के निधान हे मुनीश्वर ! आप विजयी बनों! हे नाथ! रोग से पीड़ित देह के त्याग के लिए भी मेरा आगमन आपके चरण कमल के प्रभाव से आज निश्चय सफल हुआ है। इसलिए हे जगत् बन्धु! आज से आप ही एक मेरे माता, पिता, भाई और स्वजन Jain Education International For Personal & Private Use Only 103 www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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