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________________ श्री संवेगरंगशाला २. जिन बिम्ब द्वार : इसमें किसी गाँव, नगर आदि में सर्व अंगों से अखण्ड जिनमंदिर है, किन्तु उसमें जिनबिम्ब नहीं हो, क्योंकि - पूर्व में किसी ने उसका हरण किया हो अथवा तोड़ दिया हो अथवा प्रतिमा अंगों से खण्डित हुई हो तो पूर्व में विधि अनुसार स्वयं अथवा दूसरे भी सामर्थ्य के अभाव में साधारण द्रव्य भी लेकर सुंदर जिनबिम्ब को तैयार करा सकता है। चन्द्र समान सौम्य, शान्त आकृतिवाला और निरुपम रूपवाला जिनबिम्ब (प्रतिमा) तैयार करवाकर ऊपर कहे जिनमंदिर में उसके उचित विधि से प्रतिष्ठित करें। उसे देखकर हर्ष से विकसित रोमांचित वाले कई गुणानुरागी को बोधिलाभ की प्राप्ति होती है और कई अन्य जीव तो उसी भव में ही जिन दीक्षा को भी स्वीकार करते हैं। परंतु यदि वह गाँव, नगर आदि अनार्य पापी लोगों से युक्त हों, वहाँ के रहनेवाले पुरुषों की दशा पड़ती हो अथवा वह गाँव आदि देश की अंतिम सीमा में हो, श्रावक वर्ग से रहित हो, वहाँ जिनमंदिर जर्जरित हो गया हो, फिर भी उसमें जिनबिम्ब सर्वांग सुंदर अखण्ड और दर्शनीय हो तो वहाँ अनार्य, मिथ्यात्वी, पापी लोगों द्वारा आशातना आदि दोष लगने के भय से उस जीर्ण जिनमंदिर में से जिनबिम्ब को उत्थापन करके अन्य उचित गाँव, नगर आदि में ले जाकर प्रतिष्ठित करें और इस तरह परिवर्तन की सामग्री का यदि स्वयं के पास अन्य के पास से भी मिलने का अभाव हो तो साधारण द्रव्य यथायोग्य उस सामग्री के उपयोग में लगाये।' ऐसा करने से बोधिबीज आदि क्या-क्या लाभ नहीं होता? अर्थात् इससे अनेक लाभ होते हैं। इस तरह जिनबिम्ब द्वार कहा। अब जिनपूजा द्वार कहते हैं : परिकर्म द्वार- साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान ३. जिनपूजा द्वार : इसमें सदाचारी मनुष्यों से युक्त इत्यादि गुणों वाले क्षेत्रों में जिनमंदिर दोष रहित सुंदर हो और जिनबिम्ब भी निष्कलंक श्रेष्ठ हो । किन्तु वहाँ रकाबी, कटोरी आदि पूजा की कोई सामग्री नहीं मिलती हो तो स्वयं देखकर अथवा पूर्व कहे अनुसार सुनकर, उस नगर, गाँव आदि के सर्व मुख्य व्यक्तियों को एकत्रित करके साधु अथवा श्रावक भी अति चतुरता के साथ- - युक्ति संगत मधुर वचनों से उनको समझाए कि - यहाँ अन्य कोई नहीं, तुम ही एक परम धन्य हो कि जिसके गाँव या नगर में ऐसा सुंदर भव्य रचनावाला प्रशंसनीय, मनोहर, मंदिर और जिनबिम्बों के दर्शन होते हैं और तुम्हारे सर्व देव सम्यक् पूजनीय हैं, सर्व श्री सम्यग् वंदनीय हैं और सर्व भी पूजा करने योग्य हैं, तो यहाँ पर अब पूजा क्यों नहीं होती? तुम्हें देवों की पूजा करने में अन्तराय करना योग्य नहीं है, इत्यादि वचनों से उन्हें अच्छी तरह समझाये, आग्रह करें। फिर भी वे यदि नहीं मानें और दूसरे से भी पूजा का सम्भव न हो तो साधारण द्रव्य को भी देकर वहाँ रहने वाले माली आदि अन्य लोगों हाथ से भी पूजा, धूप, दीप और शंख बजाने की व्यवस्था करें। 2 ऐसा करने से अपने स्थान का अनुरागी बनता है। वहाँ रहने वाले भव्य प्राणियों को निश्चय घर के प्रागंण में ही कल्पवृक्ष बोने जैसी प्रसन्नता होती है और परम गुरु श्री जिनेश्वरों की प्रतिमाओं में पूजा का अतिशय देखकर सत्कार आदि प्रकट होता है, इससे जीवों को बोधिबीज की प्राप्ति होती है। इस तरह पूजाद्वार को संक्षेप से सम्यग् रूप से कहा, अब गुरु के उपदेश से पुस्तक द्वार को भी कहते हैं ।। २८२८ ।। : ४. आगम पुस्तक द्वार : इसमें अंग उपांग सम्बन्धी अथवा चार अनुयोग के उपयोगी, योनि प्राभृत, ज्योतिष, निमित्त शास्त्र आदि 1. श्लोक २८१३-१४-१५ ।। जिणबिंबं अन्नंमि वि संचारेज्जा पुराइए उचिए || २८१५ || पूर्व श्लोको 2. दाउं तत्थारासिय - मालागाराइलोयहत्थेण । पूयं धूवं दीवं च संखसद्दं च कारेज्जा || २८२७|| 122 Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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