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________________ मुख से परिवर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के इस स्थान श्री संवेगरंगशाला तो संक्षेप से भी वंदन करके उसके टूटे हुए भाग को देखे और विशेष टूटा-फूटा हो तो उसकी चिंता करें। अपना सामर्थ्य हो तो श्रावक ही करे। मुनि भी निश्चय ही उस संबंधी उपदेश देकर यथायोग्य चिंता करें। अथवा स्वदेश में अथवा परदेश में अच्छे चरित्र-पात्र अन्य लोगों से भरा हुआ भी श्रावक के निवास बिना का गांव, नगर हो, अथवा वहाँ के श्रावक धन आदि से अति दुर्बल हों, परंतु रहने वाले अन्य मनुष्य पुण्योदय से चढ़ती कला वाले हों, ऐसे गाँव, नगर आदि स्थानों में जो जिनमंदिर जीर्ण-शीर्ण हों अथवा दीवार आदि का सन्धि स्थान टूट गया हो, या दरवाजे, देहली आदि अति क्षीण हो गये हों, उसके उपदेशक मुनियों के अथवा अन्य लोग सुनकर अथवा ऐसा किसी भी कहीं पर भी देखकर श्री जिनशासन के भक्ति राग से (अद्विमिंज) अस्थि मज्जा समान सातों धातुओं से अनुरागी श्रावक स्वयं विचार करता है कि-अहो! मैं मानता हूँ कि-किसी पुण्य के भण्डार रूप गृहस्थ ने ऐसा सुंदर जिनमंदिर बनाकर अपना यश विस्तार को एकत्रित करके यह मंदिर रूप में स्थापन किया है। किन्तु इस तरह मजबूत बनाने पर भी खेदजनक बात है कि कालक्रम से जीर्ण-शीर्ण हो गया है, अथवा तो संसार में उत्पन्न होते सर्व पदार्थ नाशवान हैं ही, इसलिए अब मैं इसे तोड़-फोड़ करवाकर श्रेष्ठ बनवाऊँ। ऐसा करने से यह मंदिर संसाररूपी खाई में गिरते हुए मनुष्य के उद्धार के लिए हस्तावलम्बन बनेगा। ऐसा विचारकर यदि वह स्वयमेव तैयार कराने में शक्तिशाली हो तो स्वयं ही उद्धार करें और स्वयं में शक्ति यदि न हो तो उपदेश देने में कुशल वह अन्य भी श्रावकों को वह हकीकत समझाकर उसे सुधारने का स्वीकार करवायें। इस प्रकार जैसे स्वयं वैसे वह भी उद्धार कराने में यदि असमर्थ हो और यदि दूसरा भी कोई प्रस्तुत वह कार्य करने में समर्थ न हो तो ऐसे समय पर उस मंदिर का साधारण द्रव्य से खर्चकर उद्धार करवाये। क्योंकि बुद्धिमान श्रावक निश्चय से साधारण द्रव्य को इधर-उधर से खर्च न करें। और जीर्ण मंदिर आदि नहीं रहता है, इसलिए अन्य के पास से भी द्रव्य प्राप्ति करने का यदि सम्भव न हो तो विवेक से साधारण द्रव्य भी खर्च करें।।२७९८।। वह इस प्रकार से ___ जीर्णमंदिर को नया तैयार करें, चलित को पुनः स्थिर करें, खिसक गये को पुनः वहाँ स्थापना करना, और सड़े हुए को भी पुनः नया जोड़ देना, गिरे हुए को पुनः खड़ा करना, लेप आदि न हो तो उसका लेप करवाना, चूना उतर गया हो तो उसे फिर से सफेदी करवाना, और ढक्कन आदि न हो तो उसे ढकवाये।।२८००।। इसके अतिरिक्त कलश, आमलसार, पात स्तम्भ आदि उसके सड़े गिरे जो जो अंग हो तथा पड़े, टूटे या छिद्र गिरे किल्ले को अथवा उसका अंगभूत अन्य कोई भी जो कोई अति अव्यवस्थित देखे वह सर्व श्रेष्ठ प्रयत्न से अच्छी तरह तैयार करवाये। क्योंकि साधारण द्रव्य से भी उद्धार करने से जिनमंदिर दर्शन करने वाले गुण रागी आत्माओं के लिए निश्चय बोधि लाभ के लिए होता है। यद्यपि जिनमंदिर करने में निश्चय ही पृथ्वीकाय आदि जीवों का विनाश होता है, तो भी समकित दृष्टि को नियम से उस विषय में हिंसा का परिणाम नहीं होता, परंतु अनुकम्पा का (भक्ति का) परिणाम होता है। जैसे कि-जिनमंदिर को करवाने से अथवा जीर्णोद्धार करवाने से उसके दर्शन करने वाले भव्यात्माएँ बोध प्राप्त कर सर्व विरति चारित्र को प्राप्त कर पृथ्वीकायादि जीवों की रक्षा करता है। और इससे वह निर्वाण पद मोक्ष प्राप्त करता है, वह सादि अनंतकाल तक संसारी जीवों को दुःख बाधाएँ नहीं करता है। इस तरह जिनमंदिर बनाने में अहिंसा की सिद्धि होती है। जैसे रोगी को अच्छी तरह प्रयोग से नस छेदन आदि वैद्य क्रिया में पीड़ा होती है, परंतु परिणाम से सुंदर लाभदायक होता है, वैसे ही छह काय की विराधना होते हुए भी परिणाम से इसका फल अति सुंदर मिलता है। इस तरह प्रथम जिनमंदिर द्वार कहा। अब जिनबिम्ब द्वार कहते हैं : 1. नहु साहारणदव्वं वएज्ज धीमं जह कहंपि ।।२७६७|| - 121 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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